हिन्दू, हिंदुत्व, हिन्दू धर्म और हिन्दू धर्मग्रंथों का कड़वा सच
The Bitter Truth of Hindu, Hinduism, Hindu Religion and Hindu Scriptures
सरेआम निर्दोष लोगों की हत्या और स्त्रियों के साथ बलात्कार करने वाले लोग भी उतने नीच, घटिया और मक्कार नहीं होते हैं, जितने कि हिन्दू धर्म के तथाकथित संचालक पंडे हैं, पुजारी हैं, साधु हैं, संत हैं और सन्यासी हैं। जो हजारों सालों से हिन्दू धर्म को आँख बंद करके मानने वाले भोले-भाले लोगों का और हिन्दू धर्म का भी शोषण करते आये हैं। जो खुद धर्म के नाम पर जीते आये हैं। जिन्होंने हजारों सालों से आज तक धर्म को अपनी आजीविका बना रखा है। जिन्होंने धर्म को गोरखधंधा और व्यापार बना रक्खा है। जो सरेआम भगवान को भी बेचते हैं और जिनके परिवार भगवान को बेचने पर जिन्दा रहते हैं। ऐसे लोग सबसे बड़े क्रूर अपराधी और शोषक हैं। इनके शिकंजे से मानवता की मुक्ति जरूरी है।-सेवासुत डॉ. पुरुषोत्तम मीणा 'निरंकुश'

Wednesday 14 January 2015

राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की विचारधारा क्या है? :
१-अपनी “प्रार्थना” और “प्रतिज्ञा” में संघी हिन्दू धर्म, हिन्दू संस्कृति और हिन्दू समाज की रक्षा की बात करते हैं। स्पष्ट है कि धर्मनिरपेक्षता और जनवाद में इनका कोई यक़ीन नहीं है।
२-हिन्दू समाज की भी संघियों की अपनी अपनी परिभाषा है। हिन्दुओं से इनका मतलब मुख्य और मूल रूप से उच्च जाति के हिन्दू पुरुष हैं।
-संघी ‘मनुस्मृति’ को भारत के संविधान के रूप में लागू करना चाहते थे। वही ‘मनुस्मृति’ जिसके अनुसार एक इंसान की जाति ही तय करती है कि समाज में उसका स्थान क्या होगा?
-संघ के “हिन्दू राष्ट्र” की सदस्यता उच्च वर्ण के हिन्दू पुरुषों के लिए ही खुली है; बाकियों को दोयम दर्जे की स्थिति के लिए तैयार रहना चाहिए; यानी, कि मुसलमानों, ईसाइयों, दलितों, आदिवासियों, स्त्रियों आदि को।
-अगर संघ के सबसे लोकप्रिय सरसंघचालक गोलवलकर और संस्थापक हेडगेवार के प्रेरणा-स्रोतों में से एक मुंजे की जुबानी सुनें तो संघ की विचारधारा स्पष्ट तौर पर फ़ासीवाद है।
-गोलवलकर ने अपनी पुस्तकों ‘वी ऑर अवर नेशनहुड डिफाइण्ड’ और ‘बंच ऑफ थॉट्स’ में स्पष्ट शब्दों में इटली के फासीवाद और जर्मनी के नात्सीवाद की हिमायत की।
-हिटलर ने यहूदियों के सफाये के तौर पर जो ‘अन्तिम समाधान’ पेश किया, गोलवलकर ने उसकी भूरि-भूरि प्रशंसा की है और लिखा है कि हिन्दुस्तान में भी हिन्दू जाति की शुद्धता की हिफ़ाज़त के लिए इसी प्रकार का ‘अन्तिम समाधान’ करना होगा।
-संघ का सांगठनिक ढांचा भी मुसोलिनी और हिटलर की पार्टी से हूबहू मेल खाता है। इटली का फ़ासीवादी नेता मुसोलिनी जनतंत्र का कट्टर विरोधी था और तानाशाही में आस्था रखता था।
-मुसोलिनी के मुताबिक “एक व्यक्ति की सरकार एक राष्ट्र के लिए किसी जनतंत्र के मुकाबले ज़्यादा असरदार होती है।”
-फ़ासीवादी पार्टी में ‘ड्यूस’ के नाम पर शपथ ली जाती थी, जबकि हिटलर की नात्सी पार्टी में ‘फ़्यूहरर’ के नाम पर। संघ का ‘एक चालक अनुवर्तित्व’ जिसके अन्तर्गत हर सदस्य सरसंघचालक के प्रति पूर्ण कर्मठता और आदरभाव से हर आज्ञा का पालन करने की शपथ लेता है, उसी तानाशाही का प्रतिबिम्बन है जो संघियों ने अपने जर्मन और इतावली पिताओं से सीखी है।
-संघ ‘कमाण्ड स्ट्रक्चर’ यानी कि एक केन्द्रीय कार्यकारी मण्डल, जिसे स्वयं सरसंघचालक चुनता है, के ज़रिये काम करता है, जिसमें जनवाद की कोई गुंजाइश नहीं है।
-यही विचारधारा है जिसके अधीन गोलवलकर (जो संघ के सबसे पूजनीय सरसंघचालक थे) ने 1961 में राष्ट्रीय एकता परिषद् के प्रथम अधिवेशन को भेजे अपने सन्देश में भारत में संघीय ढाँचे (फेडरल स्ट्रक्चर) को समाप्त कर एकात्म शासन प्रणाली को लागू करने का आह्वान किया था।
-संघ मज़दूरों पर पूर्ण तानाशाही की विचारधारा में यक़ीन रखता है और हर प्रकार के मज़दूर असन्तोष के प्रति उसका नज़रिया दमन का होता है।
-यह अनायास नहीं है कि इटली और जर्मनी की ही तरह नरेन्द्र मोदी ने गुजरात में मज़दूरों पर नंगे किस्म की तानाशाही लागू कर रखी है। अभी हड़ताल करने पर कानूनी प्रतिबन्ध तो नहीं है, लेकिन अनौपचारिक तौर पर प्रतिबन्ध जैसी ही स्थिति है; श्रम विभाग को लगभग समाप्त कर दिया गया है, और मोदी खुद बोलता है कि गुजरात में उसे श्रम विभाग की आवश्यकता नहीं है! ज़ाहिर है-मज़दूरों के लिए लाठियों-बन्दूकों से लैस पुलिस और सशस्त्र बल तो हैं ही! जर्मनी और इटली में भी इन्होंने पूँजीपति वर्ग की तानाशाही को सबसे बर्बर और नग्न रूप में लागू किया था और यहाँ भी उनकी तैयारी ऐसी ही है।
-जर्मनी और इटली की ही तरह औरतों को अनुशासित करके रखने, उनकी हर प्रकार की स्वतन्त्रता को समाप्त कर उन्हें चूल्हे-चौखट और बच्चों को पैदा करने और पालने-पोसने तक सीमित कर देने के लिए संघ के अनुषंगी संगठन तब भी तत्पर रहते हैं, जब भाजपा शासन में नहीं होती।
-श्रीराम सेना, बजरंग दल, विश्व हिन्दू परिषद् के गुण्डे लड़कियों के प्रेम करने, अपना जीवन साथी अपनी इच्छा से चुनने, यहाँ तक कि जींस पहनने और मोबाइल इस्तेमाल करने तक पर पाबन्दी लगाने की बात करते हैं। यह बात अलग है कि यही सलाह वे कभी सुषमा स्वराज, वसुन्धरा राजे, उमा भारती, या मीनाक्षी लेखी को नहीं देते जो कि औरतों को गुलाम बनाकर रखने के मिशन में उनके साथ खड़ी औरतें हैं!
-गोलवलकर ने स्वयं औरतों के बारे में ऐसे विचार व्यक्त किये हैं। उनके विचारों पर अमल हो तो औरतों का कार्य “वीर हिन्दू पुरुषों” को पैदा करना होना चाहिए!
-जहाँ तक बात इनके “राष्ट्रवादी” होने की है, तो भारतीय स्वतन्त्र संग्राम के इतिहास पर नज़र डालते ही समझ में आ जाता है कि यह एक बुरे राजनीतिक चुटकुले से ज़्यादा और कुछ भी नहीं है। संघ के किसी भी नेता ने कभी भी ब्रिटिश सरकार के खिलाफ़ अपना मुँह नहीं खोला।
-जब भी संघी किसी कारण पकड़े गए तो उन्होंने बिना किसी हिचक के माफ़ीनामे लिख कर, अंग्रेजी हुकूमत के प्रति अपनी वफ़ादारी साबित की है। स्वयं पूर्व प्रधानमन्त्री अटल बिहारी वाजपयी ने भी यही काम किया था।
-संघ ने किसी भी ब्रिटिश साम्राज्यवाद विरोधी आन्दोलन में हिस्सा नहीं लिया। ‘भारत छोड़ो आन्दोलन’ के दौरान संघ ने उसका बहिष्कार किया।
-संघ ने हमेशा ब्रिटिश शासन के प्रति अपनी वफ़ादारी बनायी रखी और देश में साम्प्रदायिकता फैलाने का अपना काम बखूबी किया।
-वास्तव में साम्प्रदायिकता फैलाने की पूरी साज़िश तो ब्रिटिश उपनिवेशवादियों के ही दिमाग़ की पैदावार थी और ‘बाँटो और राज करो’ की उनकी नीति का हिस्सा थी। लिहाज़ा, संघ के इस काम से उपनिवेशवादियों को भी कभी कोई समस्या नहीं थी।
-ब्रिटिश उपनिवेशवादी राज्य ने भी इसी वफ़ादारी का बदला चुकाया और हिन्दू साम्प्रदायिक फ़ासीवादियों को कभी अपना निशाना नहीं बनाया।
-आर.एस.एस. ने हिन्दुत्व के अपने प्रचार से सिर्फ़ और सिर्फ़ साम्राज्यवाद के ख़िलाफ़ हो रहे देशव्यापी आन्दोलन से उपजी कौमी एकजुटता को तोड़ने का प्रयास किया।
-ग़ौरतलब है कि अपने साम्प्रदायिक प्रचार के निशाने पर आर.एस.एस. ने हमेशा मुसलमानों, कम्युनिस्टों और ट्रेड यूनियन नेताओं को रखा और ब्रिटिश शासन की सेवा में तत्पर रहे।
-संघ कभी भी ब्रिटिश शासन-विरोधी नहीं था, यह बात गोलवलकर के 8 जून, 1942 में आर.एस.एस. के नागपुर हेडक्वार्टर पर दिए गए भाषण से साफ़ हो जाती है – “संघ किसी भी व्यक्ति को समाज के वर्तमान संकट के लिये ज़िम्मेदार नहीं ठहराना चाहता। जब लोग दूसरों पर दोष मढ़ते हैं तो असल में यह उनके अन्दर की कमज़ोरी होती है। शक्तिहीन पर होने वाले अन्याय के लिये शक्तिशाली को ज़िम्मेदार ठहराना व्यर्थ है।…जब हम यह जानते हैं कि छोटी मछलियाँ बड़ी मछलियों का भोजन बनती हैं तो बड़ी मछली को ज़िम्मेदार ठहराना सरासर बेवकूफ़ी है। प्रकृति का नियम चाहे अच्छा हो या बुरा सभी के लिये सदा सत्य होता है। केवल इस नियम को अन्यायपूर्ण कह देने से यह बदल नहीं जाएगा।”
-अपनी बात को स्पष्ट करने के लिये इतिहास के उस कालक्रम पर रोशनी डालेंगे जहाँ संघ की स्थापना होती है। यहीं संघ की जड़ों में बसी प्रतिक्रियावादी विचारधारा स्पष्ट हो जाएगी।
-आर.एस.एस. की स्थापना 1925 में नागपुर में विजयदशमी के दिन हुई थी। केशव बलिराम हेडगेवार आर.एस.एस. के संस्थापक थे। भारत में फ़ासीवाद उभार की ज़मीन एक लम्बे अर्से से मौजूद थी।
-आज़ादी के पहले 1890 और 1900 के दशक में भी हिन्दू और इस्लामी पुनुरुत्थानवादी ताकतें मौजूद थी पर उस समय के कुछ प्रगतिवादी राष्ट्रवादी नेताओं के प्रयासों द्वारा हिन्दू व इस्लामी पुनरुत्थानवादी प्रतिक्रियावाद ने कोई उग्र रूप नहीं लिया।
-फ़ासीवादी उभार की ज़मीन हमेशा पूँजीवादी विकास से पैदा होने वाली बेरोज़गारी, गरीबी, भुखमरी, अस्थिरता, असुरक्षा, और आर्थिक संकट से तैयार होती है।
-भारत ब्रिटिश साम्राज्य का उपनिवेश था। यहाँ पूँजीवाद अंग्रेज़ों द्वारा आरोपित औपनिवेशक व्यवस्था के भीतर पैदा हुआ। एक उपनिवेश होने के कारण भारत को पूँजीवाद ब्रिटेन से गुलामी के तोहफ़े के तौर पर मिला।
-भारत में पूँजीवाद किसी बुर्जुआ जनवादी क्रान्ति के ज़रिये नहीं आया। इस प्रकार से आये पूँजीवाद में जनवाद, आधुनिकता, तर्कशीलता जैसे वे गुण नहीं थे जो यूरोप में क्रान्तिकारी रास्ते से आये पूँजीवाद में थे। इस रूप में यहाँ का पूँजीपति वर्ग भी बेहद प्रतिक्रियावादी, अवसरवादी और कायर किस्म का था जो हर प्रकार के प्रतिक्रियावाद को प्रश्रय देने को तैयार था।
-आज़ादी के बाद यहाँ हुए क्रमिक भूमि सुधारों के कारण युंकरों जैसा एक पूँजीवादी भूस्वामी वर्ग भी मौजूद था।
-गाँवों में भी परिवर्तन की प्रक्रिया बेहद क्रमिक और बोझिल रही जिसने संस्कृति और सामाजिक मनोविज्ञान के धरातल पर प्रतिक्रिया के लिए एक उपजाऊ ज़मीन मुहैया करायी।
-निश्चित तौर पर, उन्नत पूँजीवादी देशों में भी, जहाँ पूँजीवादी जनवादी क्रान्तियाँ हुई थीं, फासीवादी उभार हो सकता है और आज हो भी रहा है। लेकिन निश्चित तौर पर फासीवादी उभार की ज़मीन उन समाजों में ज़्यादा मज़बूत होगी जहाँ आधुनिक पूँजीवादी विकृति, रुग्णता, बर्बादी और तबाही के साथ मध्ययुगीन सामन्ती बर्बरता, निरंकुशता और पिछड़ापन मिल गया हो।
-भारत में ऐसी ज़मीन आज़ादी के बाद पूँजीवादी विकास के शुरू होने के साथ फासीवादी ताक़तों को मिली। राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ का हिन्दुत्ववादी फासीवाद इसी ज़मीन पर पला-बढ़ा है।
-आज जब पूँजीवाद अपने संकट का बोझ मज़दूर वर्ग और आम मेहनतकश आबादी पर डाल रहा है और महँगाई, बेरोज़गारी और भूख से उन पर कहर बरपा कर रहा है, तो जनता के आन्दोलन भी सड़कों पर फूट रहे हैं। चाहे वह मज़दूरों के आन्दोलन हों, ठेके पर रखे गये शिक्षकों, नर्सों और अन्य कर्मकारों के आन्दोलन हों, या फिर शिक्षा और रोज़गार के अधिकार के लिए छात्रों-युवाओं के आन्दोलन हों।
-यदि कोई क्रान्तिकारी विकल्प न हो तो पूँजीवाद के इसी संकट से समाज में उजड़ा हुआ टुटपुँजिया पूँजीपति वर्ग और लम्पट सर्वहारा वर्ग फ़ासीवादी प्रतिक्रिया का आधार बनते हैं। ब्रिटिश भारत में भी फासीवादी विचारधारा का सामाजिक आधार इन्हीं वर्गों के ज़रिये पैदा हुआ था।
-भारत के महाराष्ट्र में ऐसा टटपूँजिया वर्ग मौजूद था। महाराष्ट्र के व्यापारी और ब्राह्मण ही आर.एस.एस. का शुरुआती आधार बने।
-1916 के लखनऊ समझौते और खिलाफ़त आन्दोलन के मिलने से धार्मिक सौहार्द्र की स्थिति बनी रही। परन्तु इस दौरान भी ‘हिन्दू महासभा’ जैसे हिन्दू साम्प्रदायिक संगठन मौजूद थे।
-गाँधी द्वारा असहयोग आन्दोलन के अचानक वापस लिए जाने से एक हताशा फैली और ठहराव की स्थिति आयी।
-इतिहास गवाह है कि ऐसी हताशा और ठहराव की स्थितियों में ही प्रतिक्रियावादी ताक़तें सिर उठाती हैं और जनता को ‘गलत रास्ते पर ले जाने में सफल हो जाती हैं’ जैसा कि भगतसिंह ने कहा था।
-भारत का बुर्जुआ वर्ग एक तरफ़ साम्राज्यवाद से राजनीतिक स्वतन्त्रता चाहता था, तो वहीं वह मज़दूरों और किसानों के जाग जाने और विद्रोह का रास्ता अख्‍त़ियार करने से लगातार भयभीत भी रहता था।
-इसीलिए गाँधी ने कभी मज़दूरों को संगठित करने का प्रयास नहीं किया; उल्टे जब गुजरात के मज़दूरों ने गाँधी का जुझारू तरीके से साथ देने की पेशकश की तो गाँधी ने उन्हें शान्तिपूवर्क काम करने की हिदायत दी और कहा कि मज़दूर वर्ग को राजनीतिक तौर पर छेड़ा नहीं जाना चाहिए।
-यही कारण था कि असहयोग आन्दोलन के क्रान्तिकारी दिशा में मुड़ने के पहले संकेत मिलते ही गाँधी ने कदम पीछे हटा लिये और अंग्रेज़ों से समझौता कर लिया।
-भारतीय रुग्ण पूँजीपति वर्ग का राजनीतिक चरित्र ही दोहरा था। इसलिए उसने पूरी स्वतन्त्रता की लड़ाई में कभी आमूलगामी रास्ता अख्‍त़ियार नहीं किया और हमेशा ‘दबाव-समझौता-दबाव’ की रणनीति अपनायी ताकि जनता की क्रान्तिकारी पहलकदमी को निर्बन्ध किये बिना, एक समझौते के रास्ते एक पूँजीवादी राजनीतिक स्वतन्त्रता मिल जाये।
-गाँधी और कांग्रेस की यह रणनीति भी भारत में फासीवाद के उदय के लिए ज़िम्मेदार थी। मिसाल के तौर पर असहयोग आन्दोलन के वापस लिये जाने के बाद जो हताशा फैली उसी के कारण प्रतिक्रियावादी ताक़तें हिन्दू-मुस्लिम एकता को तोड़ने में सफल हुईं। एक तरफ़ इस्लामी कट्टरपंथ तो दूसरी ओर हिन्दू पुनरुत्थानवाद की लहर चल पड़ी। सावरकर बंधुओं का समय यही था।
-आर.एस.एस. की स्थापना इन्हीं सब घटनाओं की पृष्ठभूमि में हुई।
-संघ के संस्थापक हेडगेवार संघ के निर्माण से पहले कांग्रेस के साथ जुड़े थे।
-1921 में ख़िलाफ़त आन्दोलन के समर्थन में दिए अपने भाषण की वजह से उन्हें एक साल की जेल हुई।
-आर.एस.एस. के द्वारा ही छापी गयी उनकी जीवनी “संघवृक्ष के बीज” में लिखा है कि जेल में रहते हुए स्वतंत्रता संग्राम में हासिल हुए अनुभवों ने उनके मस्तिष्क में कई सवाल पैदा किये और उन्हें लगा कि कोई और रास्ता ढूँढा जाना चाहिए।
-इसी किताब में यह भी लिखा हैं कि हिन्दुत्व की ओर हेडगेवार का रुझान 1925 में शुरू हुआ।
-बात साफ़ है, जेल जाने के पश्चात जो “बौद्धिक ज्ञान” उन्हें हासिल हुआ उसके बाद उन्होंने आर.एस.एस. की स्थापना कर डाली।
-हेडगेवार जिस व्यक्ति के सम्पर्क में फ़ासीवादी विचारों से प्रभावित हुए वह था मूंजे। मूंजे वह तार है जो आर.एस.एस. के संस्थापक हेडगेवार और मुसोलिनी के फ़ासीवादी विचारों से संघ की विचारधारा को जोड़ता है।
-मज़ि‍र्आ कसोलरी नामक एक इतालवी शोधकर्ता ने आर.एस.एस. के संस्थापकों और नात्सियों व इतालवी फ़ासीवादियों के बीच के सम्पर्कों पर गहन शोध किया है।
-कसोलरी के अनुसार हिन्दू राष्ट्रवादियों की फ़ासीवाद और मुसोलिनी में रुचि कोई अनायास होने वाली घटना नहीं है, जो केवल चन्द लोगों तक सीमित थी, बल्कि यह हिन्दू राष्ट्रवादियों, ख़ासकर महाराष्ट्र में रहने वाले हिन्दू राष्ट्रवादियों के इतालवी तानाशाही और उनके नेताओं की विचारधारा से सहमति का नतीजा था।
-इन पुनरुत्थानवादियों को फ़ासीवाद एक “रूढ़िवादी क्रान्ति” के समान प्रतीत होता था।
-इस अवधारणा पर मराठी प्रेस ने इतालवी तानाशाही की उसके शुरुआती दिनों से ही खूब चर्चा की।
-1924-1935 के बीच आर.एस.एस. से करीबी रखने वाले अखबार ‘केसरी’ ने इटली में फ़ासीवाद और मुसोलिनी की सराहना में कई सम्पादकीय और लेख छापे। जो तथ्य मराठी पत्रकारों को सबसे अधिक प्रभावित करता था, वह था फ़ासीवाद का “समाजवाद” से उद्भव, जिसने इटली को एक पिछड़े देश से एक विश्व शक्ति के रूप में परिवर्तित कर दिया।
-अपने सम्पादकियों की एक श्रृंखला में केसरी ने इटली के उदारवादी शासन से तानाशाही तक की यात्रा को अराजकता से एक अनुशासित स्थिति की स्थापना बताया।
-मराठी अखबारों ने अपना पर्याप्त ध्यान मुसोलिनी द्वारा किये गए राजनीतिक सुधारों पर केन्द्रित रखा, ख़ास तौर पर संसद को हटा कर उसकी जगह ‘ग्रेट कॅाउंसिल ऑफ़ फ़ासिज़्म’ की स्थापना।
-इन सभी तथ्यों से यह साफ़ हो जाता है कि 1920 के अन्त तक महाराष्ट्र में मुसोलिनी की फ़ासीवादी सत्ता अखबारों के माध्यम से काफ़ी प्रसिद्धि प्राप्त कर रही थी।
-फ़ासीवाद का जो पहलू हिन्दू राष्ट्रवादियों को सबसे अधिक आकर्षक लगा वह था-समाज का सैन्यकरण, जिसने एक तानाशाह की अगुवाई में समाज का रूपान्तरण कर दिया था।
-इस लोकतंत्र-विरोधी व्यवस्था को हिन्दू राष्ट्रवादियों द्वारा ब्रिटिश मूल्यों वाले लोकतंत्र के मुकाबले एक सकारात्मक विकल्प के रूप में देखा गया।
-पहला हिन्दू राष्ट्रवादी जो फ़ासीवाद सत्ता के सम्‍पर्क में आया वह था, हेडगेवार का उस्ताद मुंजे। मुंजे ने संघ को मज़बूत करने और उसे देशव्यापी संस्था बनाने की अपनी इच्छा व्यक्त की, जो जगजाहिर है।
-1931 फ़रवरी-मार्च के बीच मूंजे ने राउण्ड टेबल कान्फ्रेंस से लौटते हुए यूरोप की यात्रा की, जिस दौरान उसने मुसोलिनी से मुलाकात भी की।
-मूंजे ने रोम में इतालवी फ़ासीवादियों के मिलिट्री कॅालेज–फ़ासिस्ट अकेडमी ऑफ़ फिजिकल एजुकेशन, सेंट्रल मिलिट्री स्कूल ऑफ़ फ़िजिकल एजुकेशन और इन सबमें से सबसे महत्वपूर्ण बलिल्ला और एवां गारडिस्ट आर्गेनाइजेशन के गढ़ों को जाकर बहुत बारीकी से देखा। इससे मुंजे बहुत प्रभावित हुआ। ये स्कूल या कॉलेज शिक्षा के केंद्र नहीं थे, बल्कि मासूम बच्चों और लड़कों के दिमागों में ज़हर गोलकर, उनका ‘ब्रेनवॉश’ करने के सेण्टर थे।
-यहाँ 6 वर्ष से 18 वर्ष की आयु के युवकों की भर्ती कर उन्हें फ़ासीवादी विचारधारा के अधीन करने के पूरे इंतज़ाम थे।
-आर.एस.एस. का यह दावा कि इसका ढाँचा हेडगेवार के काम और सोच का नतीजा था-एक सफ़ेद झूठ है, क्योंकि संघ के स्कूल व अन्य संस्थाएँ और खुद संघ का पूरा ढाँचा इतावली फ़ासीवाद पर आधारित है। और उनसे हूबहू मेल खाता है।
-भारत वापस आते ही, मुंजे ने हिन्दुओं के सैन्यीकरण की अपनी योजना ज़मीन पर उतारनी शुरू कर दी। पुणे पहुँच कर मुंजे ने “द मराठा” को दिए एक साक्षात्कार में हिन्दू समुदाय के सैन्यीकरण के सम्बन्धों में निम्नलिखित बयान दिया, “नेताओं को जर्मनी के युवा आन्दोलन, बलिल्ला और इटली की फ़ासीवादी संगठनों से सीख लेनी चाहिए।”
-मुंजे और आर.एस.एस. की करीबी और इनकी फ़ासीवादी विचारधारा की पुष्टि 1933 में ब्रिटिश सूत्रों में छपी खुफ़िया विभाग की रिपोर्ट से हो जाती है। इस रिपोर्ट का शीर्षक था “राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ पर टिप्पणी” जिसमें संघ के मराठी भाषी क्षेत्रों में पुर्नगठन का ज़िम्मेदार मुंजे को ठहराया गया है।
-इस रिपोर्ट में आर.एस.एस. के चरित्र, इनकी गतिविधियों के बारे में कहा था कि–“यह कहना सम्भवतः कोई अतिशयोक्ति नहीं होगा कि संघ भविष्य में भारत के लिए वह बनना चाहता है जो फ़ासीवादी इटली के लिए हैं और नात्सी लोग जर्मनी के लिए हैं।” (नेशनल आर्काइव ऑफ़ इण्डिया)
-1934 में मुंजे ने अपनी एक संस्था “भोंसला मिलिट्री स्कूल” की नींव रखी, उसी साल मुंजे ने “केन्द्रीय हिन्दू सैन्य शिक्षा समाज’, जिसका मुख्य उद्देश्य हिन्दुओं के सैन्य उत्थान और हिन्दू युवाओं को अपनी मातृभूमि कि रक्षा करने योग्य बनाना था, की बुनियाद भी रखी। जब भी मुंजे को हिन्दू समाज के सैन्यकरण के व्यावहारिकता का उदहारण देने की ज़रूरत महसूस हुई तो उसने इटली की सेना और अर्द्धसेना ढाँचे के बारे में जो स्वयं देखा था, वह बताया। मुंजे ने बलिल्ला और एवां गार्डिस्टों के सम्बन्ध में विस्तारित विवरण दिए। जून 1938 में मुम्बई में स्थित इतावली वाणिज्य दूतावास ने भारतीय विद्यार्थियों को इतालवी भाषा सिखने के लिए भर्ती शुरू की, जिसके पीछे मुख्य उद्देश्य युवाओं को इटली के फ़ासीवादी प्रचार का समर्थक बनाना था। मारिओ करेली नाम के एक व्यक्ति को इस कार्य के लिए रोम से भारत भेजा गया। भर्ती किये गए विद्यार्थियों में से एक माधव काशीनाथ दामले, ने करेली के सुझाव के बाद मुसोलिनी की पुस्तक “फ़ासीवाद का सिद्धांत” का मराठी में अनुवाद किया और उसे 1939 में एक  श्रृंखलाबद्ध तरीके से लोहखंडी मोर्चा (आयरन फ्रण्ट) नामक पत्रिका में छापा गया। महाराष्ट्र में फैले फ़ासीवादी प्रभाव का एक और उदाहरण एम.आर. जयकर, जो हिन्दू महासभा के एक प्रतिष्ठित नेता थे, द्वारा गठित ‘स्वास्तिक लीग’ थी। 1940 में नात्सियों के असली चरित्र के सामने आने के साथ इस लीग ने खुद को नात्सीवाद से अलग कर लिया।
ओरिजीत सेन का कार्टून
1930 के अन्त तक, आर.एस.एस. की पैठ महाराष्ट्र के ब्राह्मण समाज में बन गयी थी। हेडगेवार ने मुंजे के विचारों से सहमति ज़ाहिर करते हुए, संघ की शाखाओं में फ़ासीवादी प्रशिक्षण की शुरुआत की। लगभग इसी समय विनायक दामोदर सावरकर, जिसके बड़े भाई राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ के संस्थापकों में से एक थे, ने जर्मनी के नात्सियों द्वारा यहूदियों के सफ़ाये को सही ठहराया और भारत में मुसलमानों की “समस्या” का भी यही समाधान सुझाया। जर्मनी में “यहूदी प्रश्न’ का अन्तिम समाधान सावरकर के लिए मॉडल था। संघियों के लिए राष्ट्र के सबसे बड़े दुश्मन थे मुसलमान! ब्रिटिश साम्राज्य उनकी निन्दा या क्रोध का कभी पात्र नहीं था। आर.एस.एस. ऐसी गतिविधियों से बचता था जो अंग्रेजी सरकार के खिलाफ़ हों। संघ द्वारा ही छपी हेडगेवार की जीवनी जिसका ज़िक्र पहले भी लेख में किया जा चुका है, में ‘डाक्टर साहब’ की स्वतंत्रता संग्राम में भूमिका का वर्णन करते हुए बताया गया है कि संघ स्थापना के बाद ‘डाक्टर साहब’ अपने भाषणों में हिन्दू संगठन के सम्बन्ध में ही बोला करते थे। सरकार पर प्रत्यक्ष टीका न के बराबर रहा करती थी। हेडगेवार ने मृत्यु से पहले गोलवलकर को अपना उत्तराधिकारी नियुक्त किया। गोलवलकर 1940 से 1973 तक संघ के सुप्रीमो रहे। गोलवलकर के ही नेतृत्व में संघ के वे सभी संगठन अस्तित्व में आये जिन्हें हम आज जानते हैं। गोलवलकर ने संघ की फ़ासीवादी विचारधारा को एक सुव्यवस्थित रूप दिया और इसकी पहुँच को महाराष्ट्र के ब्राह्मणों से बाहर निकाल अखिल भारतीय संगठन का रूप दिया। संघ ने इसी दौरान अपने स्कूलों का नेटवर्क देश भर में फैलाया। संघ की शाखाएँ भी गोलवलकर के नेतृत्व में पूरे देश में बड़े पैमाने पर फैलीं। यही कारण है कि संघ के लोग उन्हें गुरु जी कहकर सम्बोधित करते हैं।
इनके किये-धरे पर लिखना हो तो पूरी किताब लिखी जा सकती है। और कई अच्छी किताबें मौजूद भी हैं परन्तु हमारा यह मकसद नहीं था। हमारा यहाँ सिर्फ़ यह मकसद था कि यह दिखाया जाए कि संघ का विचारधारात्मक, राजनीतिक और सांगठनिक ढाँचा एक फ़ासीवादी संगठन का ढाँचा है। इसकी विचारधारा फ़ासीवाद है। अपने को राष्ट्रवादी कहने वाले और इटली व जर्मनी के फासीवादियों व नात्सियों से उधार ली निक्कर, कमीज़ और टोपी पहन कर इन मानवद्रोहियों ने देश और धर्म के नाम पर अब तक जो उन्माद फैलाया है वह फ़ासीवादी विचारधारा को भारतीय परिस्थितियों में लागू करने का नतीजा है। भारतीय संस्कृति, भारतीय अतीत के गौरव, और भाषा आदि की दुहाई देना तो बस एक दिखावा है। संघ परिवार तो अपनी विचारधारा, राजनीति, संगठन और यहाँ तक कि पोशाक से भी पश्चिमपरस्त है! और पश्चिम का अनुसरण करने में भी इसने वहाँ के जनवादी और प्रगतिशील आदर्शों का अनुसरण करने की बजाय, वहाँ की सबसे विकृत, मानवद्रोही और बर्बर विचारधारा, यानी कि फासीवाद-नात्सीवाद का अनुसरण किया है। हमारा मक़सद ‘संस्कृति’, ‘धर्म’ और ‘राष्ट्रवाद’ की दुहाई देने वाले इन फासीवादियों की असली जन्मकुण्डली को आपके सामने खोलकर रखना था, क्योंकि पढ़ी-लिखी आबादी और विशेषकर नौजवानों का एक हिस्सा भी देशभक्ति करने के महान उद्देश्य से इन देशद्रोहियों के चक्कर में फँस जाता है। इसलिए ज़रूरी है कि इनके पूरे इतिहास को जाना जाय और समझा जाय कि देशप्रेम, राष्ट्रप्रेम से इनका कभी लेना-देना था ही नहीं। यह देश में पूँजीपतियों की नंगी तानाशाही लागू करने के अलावा और कुछ नहीं करना चाहते।

मुक्तिकामी छात्रों-युवाओं का आह्वान, सितम्‍बर-दिसम्‍बर 2013

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राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के सैद्धांतिक विचारक और द्वितीय
सरसंघचालक एम एस गोलवलकर ने अपनी किताब "बंच ऑफ
थाट्स" में स्वयंसेवकों के लिए निम्नलिखित दिशा-निर्देश
दिये हैं :-
(1) अशोक चक्र वाला तिरंगा नहीं बल्कि भगवा झंडा हमारा राष्ट्रध्वज है।
(2) जमींदारी प्रथा और राजाओं के राज्यों को खत्म घोषित करना भयंकर भूल थी।
(3) संसदीय जनतंत्र भारतीय जनमानस के लिए उचित नहीं है।
(4) समाजवाद एक विदेशी विचारधारा है ।
(5) भारत का संविधान जहरीला बीज है ।
(6) सभी विधानसभाएँ और राज्य सरकारें समाप्त घोषित कर
दी जानी चाहिये ।
(7) भारत की सरकार एकतंत्री ( तानाशाही) होनी चाहिये ।
(8) जब तक ईसाई-मुस्लिम हिन्दुत्व स्वीकार नहीं करते तब तक उनके साथ दुश्मन की तरह बरताव किया जाना चाहिये ।
7. निजी स्कूलों में कम से कम दलित बच्चो को दाखिला देना।
8. सरकारी स्कूलों में कम से कम पढाई होना और बिना पढाई के बच्चो को पास करना ताकि वो नाकारा हो जाये और आगे competition fight ना कर पाए।
शिक्षा का भगवाकरण करना
12. दलित लडकियों को रेप करना और उन्हें मजबूर करना के
वो पढ़ न सके और भी बहुत कुछ है
1. हिन्दुओ के हर छोटे से छोटे पर्व का खूब प्रसार प्रचार
2. दलित मोहल्लो बस्तियों में हिन्दू मंदिर बनाना
3. आरक्षण विरोधी प्रचार करना
4. दलितों के मन में ये भावना पैदा करना के वो हिन्दू है
5. दलित बस्तियों मोहल्लो के आस पास दारु के ठेके
खोलना ताकि वो ज्यादा से ज्यादा नशे की लत में पड़े रहे
6. हर हिन्दू पर्व पर ज्यादा से ज्यादा सरकारी खर्च
करवाया जाये रास्ते जाम कर दिए जाये
14. गाँव और बस्तियों में पानी की pipe line के बजाये
टैंकर से पानी भेजना ताकि ये आपस में खूब लड़े और सिर
फूटाइ कर्र
15. दलित समाज के खूब पढ़े लिखे और कामयाब लडको से
अपनी बेटियों की शादी करना ताकि दलित लड़के अपने समाज
और माँ बाप से दूर रहे
अगर वो उनकी बात नहीं मानते तो उन्हें झूठे दहेज़ के केस में
फ़साना

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देश की आज़ादी की लड़ाई के समय अटल बिहारी बाजपेई ने अंग्रेजो की ओर से स्वतंत्रता संग्राम सेनानियो के खिलाफ अंग्रेजो को गवाही दी थी ।
उनकी गवाही से भारत के क्रांतिवीर "लीलाधर बाजपेई" को फांसी की सजा भी हुई थी ।
आज उसी बाजपेई को मोदी सरकार भारत रत्न देने जा रही है।
अगर मानने में न आये तो ये उसका प्रमाण है।
लिंक ओपन करके खुद पढ़ लीजियेगा..........
http://www.frontline.in/static/html/fl1503/15031150.htm
www.frontline.in
frontline.inp
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सिर्फ पाकिस्तान में नहीं भारत में भी हे तालिबान ।

हमारे बिहार में भी तालिबान है। रणवीर सेना के नाम से है।

इस नाम के तालिबान के मुखिया आदिवासी बच्चों को आसमान में उछाल कर फिर राइफल से निशाना लगाता था। या फिर आदिवासी महिलाओं के योनि में गोली मार कर अट्टहास लगाता था।

बच्चों या महिलाओं को मारने के पीछे बहुत शक्तिशाली तर्क देता था कि ये बच्चे बड़े होकर नक्सली बनेंगे। और यही दलित महिलाएं भविष्य के नक्सलियों को पैदा करती हैं।-(Wikipedia से साभार)
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आज भी बिहार के दलित मुख्यमंत्री मांझी के राज्य में भी ये दलित लड़कियो के हाथ पांव बाँध कर गैंग रेप करते हैं।

कल पाली में फ्री मछली न देने पे 4 दलित को मार दिये ।

जब इनका मुखिया मारा गया था तब भाजपा अध्य्क्ष सी पी ठाकुर 5 km इसके शव को कन्धा दिया था। घर में रुपयो की गंगोत्री बहाने वाला वर्तमान भाजपा वरिष्ठ मंत्री गिरिराज सिंह भूमिहार दलित महिलाओं की योनि में राइफल घुसा गोली दागने वाले इसके मुखिया ब्रह्मेश्वर सिंह भूमिहार को गांधी वादी बताता हैं और बदले में भाजपा मंत्री पद से नवाजा जाता हैं।

विभिन्न जनसंहारों में जब इसके सदस्यों पे मुकदमा चलता है तो हाई कोर्ट के सवर्ण भूमिहार न्यायाधीश इसके सदस्यों को बाइज़्ज़त बरी करते है। गोया दलितों ने सामूहिक आत्महत्या की हो। ये हैं हमारे बिहार के तालिबान की सच्ची कहानी।
आपका एक आक्रोशित भाई ।
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राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की असली जन्मकुण्डली

राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की असली जन्मकुण्डली

सिमरन

आर.एस.एस., यानी कि राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ खुद को एक सांस्कृतिक संगठन व “सच्चे देशभक्तों” का संगठन बताता है। उसका दावा है कि उसकी विचारधारा हिन्दुत्व और “राष्ट्रवाद” है। उनके राष्ट्र की परिभाषा क्या है यह आर.एस.एस. की शाखाओं में प्रचलित “प्रार्थना” और “प्रतिज्ञा” से साफ़ हो जाता है। अपनी “प्रार्थना” और “प्रतिज्ञा” में संघी हिन्दू धर्म, हिन्दू संस्कृति और हिन्दू समाज की रक्षा की बात करते हैं। स्पष्ट है कि धर्मनिरपेक्षता और जनवाद में इनका कोई यक़ीन नहीं है। हिन्दू समाज की भी संघियों की अपनी अपनी परिभाषा है। हिन्दुओं से इनका मतलब मुख्य और मूल रूप से उच्च जाति के हिन्दू पुरुष हैं। संघी ‘मनुस्मृति’ को भारत के संविधान के रूप में लागू करना चाहते थे। वही ‘मनुस्मृति’ जिसके अनुसार एक इंसान की जाति ही तय करती है कि समाज में उसका स्थान क्या होगा और जो इस बात की हिमायती है कि पशु, शूद्र और नारी सभी ताड़न के अधिकारी हैं। आर.एस.एस. का ढाँचा लम्बे समय तक सिर्फ़ पुरुषों के लिए ही खुला था। संघ के “हिन्दू राष्ट्र” की सदस्यता उच्च वर्ण के हिन्दू पुरुषों के लिए ही खुली है; बाकियों को दोयम दर्जे की स्थिति के लिए तैयार रहना चाहिए; यानी, कि मुसलमानों, ईसाइयों, दलितों, स्त्रियों आदि को। संघ के तमाम कुकृत्यों पर चर्चा करना यहाँ हमारा मक़सद नहीं है क्योंकि उसके लिए तो एक वृहत् ग्रन्थ लिखने की ज़रूरत पड़ जायेगी। हमारा मक़सद है उन सभी कुकृत्यों के पीछे काम करने वाली विचारधारा और राजनीति का एक संक्षिप्त विवेचन करना।

राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की विचारधारा क्या है? अगर संघ के सबसे लोकप्रिय सरसंघचालक गोलवलकर और संस्थापक हेडगेवार के प्रेरणा-स्रोतों में से एक मुंजे की जुबानी सुनें तो संघ की विचारधारा स्पष्ट तौर पर फ़ासीवाद है। गोलवलकर ने अपनी पुस्तकों ‘वी ऑर अवर नेशनहुड डिफाइण्ड’ और ‘बंच ऑफ थॉट्स’ में स्पष्ट शब्दों में इटली के फासीवाद और जर्मनी के नात्सीवाद की हिमायत की। हिटलर ने यहूदियों के सफाये के तौर पर जो ‘अन्तिम समाधान’ पेश किया, गोलवलकर ने उसकी भूरि-भूरि प्रशंसा की है और लिखा है कि हिन्दुस्तान में भी हिन्दू जाति की शुद्धता की हिफ़ाज़त के लिए इसी प्रकार का ‘अन्तिम समाधान’ करना होगा। संघ का सांगठनिक ढांचा भी मुसोलिनी और हिटलर की पार्टी से हूबहू मेल खाता है। इटली का फ़ासीवादी नेता मुसोलिनी जनतंत्र का कट्टर विरोधी था और तानाशाही में आस्था रखता था। मुसोलिनी के मुताबिक “एक व्यक्ति की सरकार एक राष्ट्र के लिए किसी जनतंत्र के मुकाबले ज़्यादा असरदार होती है।” फ़ासीवादी पार्टी में ‘ड्यूस’ के नाम पर शपथ ली जाती थी, जबकि हिटलर की नात्सी पार्टी में ‘फ़्यूहरर’ के नाम पर। संघ का ‘एक चालक अनुवर्तित्व’ जिसके अन्तर्गत हर सदस्य सरसंघचालक के प्रति पूर्ण कर्मठता और आदरभाव से हर आज्ञा का पालन करने की शपथ लेता है, उसी तानाशाही का प्रतिबिम्बन है जो संघियों ने अपने जर्मन और इतावली पिताओं से सीखी है। संघ ‘कमाण्ड स्ट्रक्चर’ यानी कि एक केन्द्रीय कार्यकारी मण्डल, जिसे स्वयं सरसंघचालक चुनता है, के ज़रिये काम करता है, जिसमें जनवाद की कोई गुंजाइश नहीं है। यही विचारधारा है जिसके अधीन गोलवलकर (जो संघ के सबसे पूजनीय सरसंघचालक थे) ने 1961 में राष्ट्रीय एकता परिषद् के प्रथम अधिवेशन को भेजे अपने सन्देश में भारत में संघीय ढाँचे (फेडरल स्ट्रक्चर) को समाप्त कर एकात्म शासन प्रणाली को लागू करने का आह्वान किया था। संघ मज़दूरों पर पूर्ण तानाशाही की विचारधारा में यक़ीन रखता है और हर प्रकार के मज़दूर असन्तोष के प्रति उसका नज़रिया दमन का होता है। यह अनायास नहीं है कि इटली और जर्मनी की ही तरह नरेन्द्र मोदी ने गुजरात में मज़दूरों पर नंगे किस्म की तानाशाही लागू कर रखी है। अभी हड़ताल करने पर कानूनी प्रतिबन्ध तो नहीं है, लेकिन अनौपचारिक तौर पर प्रतिबन्ध जैसी ही स्थिति है; श्रम विभाग को लगभग समाप्त कर दिया गया है, और मोदी खुद बोलता है कि गुजरात में उसे श्रम विभाग की आवश्यकता नहीं है! ज़ाहिर है-मज़दूरों के लिए लाठियों-बन्दूकों से लैस पुलिस और सशस्त्र बल तो हैं ही! जर्मनी और इटली में भी इन्होंने पूँजीपति वर्ग की तानाशाही को सबसे बर्बर और नग्न रूप में लागू किया था और यहाँ भी उनकी तैयारी ऐसी ही है। जर्मनी और इटली की ही तरह औरतों को अनुशासित करके रखने, उनकी हर प्रकार की स्वतन्त्रता को समाप्त कर उन्हें चूल्हे-चौखट और बच्चों को पैदा करने और पालने-पोसने तक सीमित कर देने के लिए संघ के अनुषंगी संगठन तब भी तत्पर रहते हैं, जब भाजपा शासन में नहीं होती। श्रीराम सेने, बजरंग दल, विश्व हिन्दू परिषद् के गुण्डे लड़कियों के प्रेम करने, अपना जीवन साथी अपनी इच्छा से चुनने, यहाँ तक कि जींस पहनने और मोबाइल इस्तेमाल करने तक पर पाबन्दी लगाने की बात करते हैं। यह बात अलग है कि यही सलाह वे कभी सुषमा स्वराज, वसुन्धरा राजे, उमा भारती, या मीनाक्षी लेखी को नहीं देते जो कि औरतों को गुलाम बनाकर रखने के मिशन में उनके साथ खड़ी औरतें हैं! गोलवलकर ने स्वयं औरतों के बारे में ऐसे विचार व्यक्त किये हैं। उनके विचारों पर अमल हो तो औरतों का कार्य “वीर हिन्दू पुरुषों” को पैदा करना होना चाहिए!


जहाँ तक बात इनके “राष्ट्रवादी” होने की है, तो भारतीय स्वतन्त्र संग्राम के इतिहास पर नज़र डालते ही समझ में आ जाता है कि यह एक बुरे राजनीतिक चुटकुले से ज़्यादा और कुछ भी नहीं है। संघ के किसी भी नेता ने कभी भी ब्रिटिश सरकार के खिलाफ़ अपना मुँह नहीं खोला। जब भी संघी किसी कारण पकड़े गए तो उन्होंने बिना किसी हिचक के माफ़ीनामे लिख कर, अंग्रेजी हुकूमत के प्रति अपनी वफ़ादारी साबित की है। स्वयं पूर्व प्रधानमन्त्री अटल बिहारी वाजपयी ने भी यही काम किया था। संघ ने किसी भी ब्रिटिश साम्राज्यवाद विरोधी आन्दोलन में हिस्सा नहीं लिया। ‘भारत छोड़ो आन्दोलन’ के दौरान संघ ने उसका बहिष्कार किया। संघ ने हमेशा ब्रिटिश शासन के प्रति अपनी वफ़ादारी बनायी रखी और देश में साम्प्रदायिकता फैलाने का अपना काम बखूबी किया। वास्तव में साम्प्रदायिकता फैलाने की पूरी साज़िश तो ब्रिटिश उपनिवेशवादियों के ही दिमाग़ की पैदावार थी और ‘बाँटो और राज करो’ की उनकी नीति का हिस्सा थी। लिहाज़ा, संघ के इस काम से उपनिवेशवादियों को भी कभी कोई समस्या नहीं थी। ब्रिटिश उपनिवेशवादी राज्य ने भी इसी वफ़ादारी का बदला चुकाया और हिन्दू साम्प्रदायिक फ़ासीवादियों को कभी अपना निशाना नहीं बनाया। आर.एस.एस. ने हिन्दुत्व के अपने प्रचार से सिर्फ़ और सिर्फ़ साम्राज्यवाद के ख़िलाफ़ हो रहे देशव्यापी आन्दोलन से उपजी कौमी एकजुटता को तोड़ने का प्रयास किया। ग़ौरतलब है कि अपने साम्प्रदायिक प्रचार के निशाने पर आर.एस.एस. ने हमेशा मुसलमानों, कम्युनिस्टों और ट्रेड यूनियन नेताओं को रखा और ब्रिटिश शासन की सेवा में तत्पर रहे। संघ कभी भी ब्रिटिश शासन-विरोधी नहीं था, यह बात गोलवलकर के 8 जून, 1942 में आर.एस.एस. के नागपुर हेडक्वार्टर पर दिए गए भाषण से साफ़ हो जाती है – “संघ किसी भी व्यक्ति को समाज के वर्तमान संकट के लिये ज़िम्मेदार नहीं ठहराना चाहता। जब लोग दूसरों पर दोष मढ़ते हैं तो असल में यह उनके अन्दर की कमज़ोरी होती है। शक्तिहीन पर होने वाले अन्याय के लिये शक्तिशाली को ज़िम्मेदार ठहराना व्यर्थ है।…जब हम यह जानते हैं कि छोटी मछलियाँ बड़ी मछलियों का भोजन बनती हैं तो बड़ी मछली को ज़िम्मेदार ठहराना सरासर बेवकूफ़ी है। प्रकृति का नियम चाहे अच्छा हो या बुरा सभी के लिये सदा सत्य होता है। केवल इस नियम को अन्यायपूर्ण कह देने से यह बदल नहीं जाएगा।” अपनी बात को स्पष्ट करने के लिये इतिहास के उस कालक्रम पर रोशनी डालेंगे जहाँ संघ की स्थापना होती है। यहीं संघ की जड़ों में बसी प्रतिक्रियावादी विचारधारा स्पष्ट हो जाएगी।

आर.एस.एस. की स्थापना 1925 में नागपुर में विजयदशमी के दिन हुई थी। केशव बलिराम हेडगेवार आर.एस.एस. के संस्थापक थे। भारत में फ़ासीवाद उभार की ज़मीन एक लम्बे अर्से से मौजूद थी। आज़ादी के पहले 1890 और 1900 के दशक में भी हिन्दू और इस्लामी पुनुरुत्थानवादी ताकतें मौजूद थी पर उस समय के कुछ प्रगतिवादी राष्ट्रवादी नेताओं के प्रयासों द्वारा हिन्दू व इस्लामी पुनरुत्थानवादी प्रतिक्रियावाद ने कोई उग्र रूप नहीं लिया। फ़ासीवादी उभार की ज़मीन हमेशा पूँजीवादी विकास से पैदा होने वाली बेरोज़गारी, गरीबी, भुखमरी, अस्थिरता, असुरक्षा, और आर्थिक संकट से तैयार होती है। भारत ब्रिटिश साम्राज्य का उपनिवेश था। यहाँ पूँजीवाद अंग्रेज़ों द्वारा आरोपित औपनिवेशक व्यवस्था के भीतर पैदा हुआ। एक उपनिवेश होने के कारण भारत को पूँजीवाद ब्रिटेन से गुलामी के तोहफ़े के तौर पर मिला। भारत में पूँजीवाद किसी बुर्जुआ जनवादी क्रान्ति के ज़रिये नहीं आया। इस प्रकार से आये पूँजीवाद में जनवाद, आधुनिकता, तर्कशीलता जैसे वे गुण नहीं थे जो यूरोप में क्रान्तिकारी रास्ते से आये पूँजीवाद में थे। इस रूप में यहाँ का पूँजीपति वर्ग भी बेहद प्रतिक्रियावादी, अवसरवादी और कायर किस्म का था जो हर प्रकार के प्रतिक्रियावाद को प्रश्रय देने को तैयार था। आज़ादी के बाद यहाँ हुए क्रमिक भूमि सुधारों के कारण युंकरों जैसा एक पूँजीवादी भूस्वामी वर्ग भी मौजूद था। गाँवों में भी परिवर्तन की प्रक्रिया बेहद क्रमिक और बोझिल रही जिसने संस्कृति और सामाजिक मनोविज्ञान के धरातल पर प्रतिक्रिया के लिए एक उपजाऊ ज़मीन मुहैया करायी। निश्चित तौर पर, उन्नत पूँजीवादी देशों में भी, जहाँ पूँजीवादी जनवादी क्रान्तियाँ हुई थीं, फासीवादी उभार हो सकता है और आज हो भी रहा है। लेकिन निश्चित तौर पर फासीवादी उभार की ज़मीन उन समाजों में ज़्यादा मज़बूत होगी जहाँ आधुनिक पूँजीवादी विकृति, रुग्णता, बर्बादी और तबाही के साथ मध्ययुगीन सामन्ती बर्बरता, निरंकुशता और पिछड़ापन मिल गया हो। भारत में ऐसी ज़मीन आज़ादी के बाद पूँजीवादी विकास के शुरू होने के साथ फासीवादी ताक़तों को मिली। राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ का हिन्दुत्ववादी फासीवाद इसी ज़मीन पर पला-बढ़ा है।

आज जब पूँजीवाद अपने संकट का बोझ मज़दूर वर्ग और आम मेहनतकश आबादी पर डाल रहा है और महँगाई, बेरोज़गारी और भूख से उन पर कहर बरपा कर रहा है, तो जनता के आन्दोलन भी सड़कों पर फूट रहे हैं। चाहे वह मज़दूरों के आन्दोलन हों, ठेके पर रखे गये शिक्षकों, नर्सों और अन्य कर्मकारों के आन्दोलन हों, या फिर शिक्षा और रोज़गार के अधिकार के लिए छात्रों-युवाओं के आन्दोलन हों। यदि कोई क्रान्तिकारी विकल्प न हो तो पूँजीवाद के इसी संकट से समाज में उजड़ा हुआ टुटपुँजिया पूँजीपति वर्ग और लम्पट सर्वहारा वर्ग फ़ासीवादी प्रतिक्रिया का आधार बनते हैं। । ब्रिटिश भारत में भी फासीवादी विचारधारा का सामाजिक आधार इन्हीं वर्गों के ज़रिये पैदा हुआ था।

भारत के महाराष्ट्र में ऐसा टटपूँजिया वर्ग मौजूद था। महाराष्ट्र के व्यापारी और ब्राह्मण ही आर.एस.एस. का शुरुआती आधार बने। 1916 के लखनऊ समझौते और खिलाफ़त आन्दोलन के मिलने से धार्मिक सौहार्द्र की स्थिति बनी रही। परन्तु इस दौरान भी ‘हिन्दू महासभा’ जैसे हिन्दू साम्प्रदायिक संगठन मौजूद थे। गाँधी द्वारा असहयोग आन्दोलन के अचानक वापस लिए जाने से एक हताशा फैली और ठहराव की स्थिति आयी। इतिहास गवाह है कि ऐसी हताशा और ठहराव की स्थितियों में ही प्रतिक्रियावादी ताक़तें सिर उठाती हैं और जनता को ‘गलत रास्ते पर ले जाने में सफल हो जाती हैं’ जैसा कि भगतसिंह ने कहा था। भारत का बुर्जुआ वर्ग एक तरफ़ साम्राज्यवाद से राजनीतिक स्वतन्त्रता चाहता था, तो वहीं वह मज़दूरों और किसानों के जाग जाने और विद्रोह का रास्ता अख्‍त़ियार करने से लगातार भयभीत भी रहता था। इसीलिए गाँधी ने कभी मज़दूरों को संगठित करने का प्रयास नहीं किया; उल्टे जब गुजरात के मज़दूरों ने गाँधी का जुझारू तरीके से साथ देने की पेशकश की तो गाँधी ने उन्हें शान्तिपूवर्क काम करने की हिदायत दी और कहा कि मज़दूर वर्ग को राजनीतिक तौर पर छेड़ा नहीं जाना चाहिए। यही कारण था कि असहयोग आन्दोलन के क्रान्तिकारी दिशा में मुड़ने के पहले संकेत मिलते ही गाँधी ने कदम पीछे हटा लिये और अंग्रेज़ों से समझौता कर लिया। भारतीय रुग्ण पूँजीपति वर्ग का राजनीतिक चरित्र ही दोहरा था। इसलिए उसने पूरी स्वतन्त्रता की लड़ाई में कभी आमूलगामी रास्ता अख्‍त़ियार नहीं किया और हमेशा ‘दबाव-समझौता-दबाव’ की रणनीति अपनायी ताकि जनता की क्रान्तिकारी पहलकदमी को निर्बन्ध किये बिना, एक समझौते के रास्ते एक पूँजीवादी राजनीतिक स्वतन्त्रता मिल जाये। गाँधी और कांग्रेस की यह रणनीति भी भारत में फासीवाद के उदय के लिए ज़िम्मेदार थी। मिसाल के तौर पर असहयोग आन्दोलन के वापस लिये जाने के बाद जो हताशा फैली उसी के कारण प्रतिक्रियावादी ताक़तें हिन्दू-मुस्लिम एकता को तोड़ने में सफल हुईं। एक तरफ़ इस्लामी कट्टरपंथ तो दूसरी ओर हिन्दू पुनरुत्थानवाद की लहर चल पड़ी। सावरकर बंधुओं का समय यही था। आर.एस.एस. की स्थापना इन्हीं सब घटनाओं की पृष्ठभूमि में हुई।

संघ के संस्थापक हेडगेवार संघ के निर्माण से पहले कांग्रेस के साथ जुड़े थे। 1921 में ख़िलाफ़त आन्दोलन के समर्थन में दिए अपने भाषण की वजह से उन्हें एक साल की जेल हुई। आर.एस.एस. के द्वारा ही छापी गयी उनकी जीवनी “संघवृक्ष के बीज” में लिखा है कि जेल में रहते हुए स्वतंत्रता संग्राम में हासिल हुए अनुभवों ने उनके मस्तिष्क में कई सवाल पैदा किये और उन्हें लगा कि कोई और रास्ता ढूँढा जाना चाहिए। इसी किताब में यह भी लिखा हैं कि हिन्दुत्व की ओर हेडगेवार का रुझान 1925 में शुरू हुआ। बात साफ़ है, जेल जाने के पश्चात जो “बौद्धिक ज्ञान” उन्हें हासिल हुआ उसके बाद उन्होंने आर.एस.एस. की स्थापना कर डाली। हेडगेवार जिस व्यक्ति के सम्पर्क में फ़ासीवादी विचारों से प्रभावित हुए वह था मूंजे। मूंजे वह तार है जो आर.एस.एस. के संस्थापक हेडगेवार और मुसोलिनी के फ़ासीवादी विचारों से संघ की विचारधारा को जोड़ता है। मज़ि‍र्आ कसोलरी नामक एक इतालवी शोधकर्ता ने आर.एस.एस. के संस्थापकों और नात्सियों व इतालवी फ़ासीवादियों के बीच के सम्पर्कों पर गहन शोध किया है। कसोलरी के अनुसार हिन्दू राष्ट्रवादियों की फ़ासीवाद और मुसोलिनी में रुचि कोई अनायास होने वाली घटना नहीं है, जो केवल चन्द लोगों तक सीमित थी, बल्कि यह हिन्दू राष्ट्रवादियों, ख़ासकर महाराष्ट्र में रहने वाले हिन्दू राष्ट्रवादियों के इतालवी तानाशाही और उनके नेताओं की विचारधारा से सहमति का नतीजा था। इन पुनरुत्थानवादियों को फ़ासीवाद एक “रूढ़िवादी क्रान्ति” के समान प्रतीत होता था। इस अवधारणा पर मराठी प्रेस ने इतालवी तानाशाही की उसके शुरुआती दिनों से ही खूब चर्चा की। 1924-1935 के बीच आर.एस.एस. से करीबी रखने वाले अखबार ‘केसरी’ ने इटली में फ़ासीवाद और मुसोलिनी की सराहना में कई सम्पादकीय और लेख छापे। जो तथ्य मराठी पत्रकारों को सबसे अधिक प्रभावित करता था वह था फ़ासीवाद का “समाजवाद” से उद्भव, जिसने इटली को एक पिछड़े देश से एक विश्व शक्ति के रूप में परिवर्तित कर दिया। अपने सम्पादकियों की एक श्रृंखला में केसरी ने इटली के उदारवादी शासन से तानाशाही तक की यात्रा को अराजकता से एक अनुशासित स्थिति की स्थापना बताया। मराठी अखबारों ने अपना पर्याप्त ध्यान मुसोलिनी द्वारा किये गए राजनीतिक सुधारों पर केन्द्रित रखा, ख़ास तौर पर संसद को हटा कर उसकी जगह ‘ग्रेट कॅाउंसिल ऑफ़ फ़ासिज़्म’ की स्थापना। इन सभी तथ्यों से यह साफ़ हो जाता है कि 1920 के अन्त तक महाराष्ट्र में मुसोलिनी की फ़ासीवादी सत्ता अखबारों के माध्यम से काफ़ी प्रसिद्धि प्राप्त कर रही थी। फ़ासीवाद का जो पहलू हिन्दू राष्ट्रवादियों को सबसे अधिक आकर्षक लगा वह था समाज का सैन्यकरण जिसने एक तानाशाह की अगुवाई में समाज का रूपान्तरण कर दिया था। इस लोकतंत्र-विरोधी व्यवस्था को हिन्दू राष्ट्रवादियों द्वारा ब्रिटिश मूल्यों वाले लोकतंत्र के मुकाबले एक सकारात्मक विकल्प के रूप में देखा गया।

पहला हिन्दू राष्ट्रवादी जो फ़ासीवाद सत्ता के सम्‍पर्क में आया वह था हेडगेवार का उस्ताद मुंजे। मुंजे ने संघ को मज़बूत करने और उसे देशव्यापी संस्था बनाने की अपनी इच्छा व्यक्त की, जो जगजाहिर है। 1931 फ़रवरी-मार्च के बीच मूंजे ने राउण्ड टेबल कान्फ्रेंस से लौटते हुए यूरोप की यात्रा की, जिस दौरान उसने मुसोलिनी से मुलाकात भी की। मूंजे ने रोम में इतालवी फ़ासीवादियों के मिलिट्री कॅालेज – फ़ासिस्ट अकेडमी ऑफ़ फिजिकल एजुकेशन, सेंट्रल मिलिट्री स्कूल ऑफ़ फ़िजिकल एजुकेशन और इन सबमें से सबसे महत्वपूर्ण बलिल्ला और एवां गारडिस्ट आर्गेनाइजेशन के गढ़ों को जाकर बहुत बारीकी से देखा। इससे मुंजे बहुत प्रभावित हुआ। ये स्कूल या कॉलेज शिक्षा के केंद्र नहीं थे बल्कि मासूम बच्चों और लड़कों के दिमागों में ज़हर गोलकर, उनका ‘ब्रेनवॉश’ करने के सेण्टर थे। यहाँ 6 वर्ष से 18 वर्ष की आयु के युवकों की भर्ती कर उन्हें फ़ासीवादी विचारधारा के अधीन करने के पूरे इंतज़ाम थे। आर.एस.एस. का यह दावा कि इसका ढाँचा हेडगेवार के काम और सोच का नतीजा था एक सफ़ेद झूठ है क्योंकि संघ के स्कूल व अन्य संस्थाएँ और खुद संघ का पूरा ढाँचा इतावली फ़ासीवाद पर आधारित है। और उनसे हूबहू मेल खाता है। भारत वापस आते ही, मुंजे ने हिन्दुओं के सैन्यीकरण की अपनी योजना ज़मीन पर उतारनी शुरू कर दी। पुणे पहुँच कर मुंजे ने “द मराठा” को दिए एक साक्षात्कार में हिन्दू समुदाय के सैन्यीकरण के सम्बन्धों में निम्नलिखित बयान दिया, “नेताओं को जर्मनी के युवा आन्दोलन, बलिल्ला और इटली की फ़ासीवादी संगठनों से सीख लेनी चाहिए।”

मुंजे और आर.एस.एस. की करीबी और इनकी फ़ासीवादी विचारधारा की पुष्टि 1933 में ब्रिटिश सूत्रों में छपी खुफ़िया विभाग की रिपोर्ट से हो जाती है। इस रिपोर्ट का शीर्षक था “राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ पर टिप्पणी” जिसमें संघ के मराठी भाषी क्षेत्रों में पुर्नगठन का ज़िम्मेदार मुंजे को ठहराया गया है। इस रिपोर्ट में आर.एस.एस. के चरित्र, इनकी गतिविधियों के बारे में कहा था कि – “यह कहना सम्भवतः कोई अतिशयोक्ति नहीं होगा कि संघ भविष्य में भारत के लिए वह बनना चाहता है जो फ़ासीवादी इटली के लिए हैं और नात्सी लोग जर्मनी के लिए हैं।” (नेशनल आर्काइव ऑफ़ इण्डिया) 1934 में मुंजे ने अपनी एक संस्था “भोंसला मिलिट्री स्कूल” की नींव रखी, उसी साल मुंजे ने “केन्द्रीय हिन्दू सैन्य शिक्षा समाज’, जिसका मुख्य उद्देश्य हिन्दुओं के सैन्य उत्थान और हिन्दू युवाओं को अपनी मातृभूमि कि रक्षा करने योग्य बनाना था, की बुनियाद भी रखी। जब भी मुंजे को हिन्दू समाज के सैन्यकरण के व्यावहारिकता का उदहारण देने की ज़रूरत महसूस हुई तो उसने इटली की सेना और अर्द्धसेना ढाँचे के बारे में जो स्वयं देखा था, वह बताया। मुंजे ने बलिल्ला और एवां गार्डिस्टों के सम्बन्ध में विस्तारित विवरण दिए। जून 1938 में मुम्बई में स्थित इतावली वाणिज्य दूतावास ने भारतीय विद्यार्थियों को इतालवी भाषा सिखने के लिए भर्ती शुरू की, जिसके पीछे मुख्य उद्देश्य युवाओं को इटली के फ़ासीवादी प्रचार का समर्थक बनाना था। मारिओ करेली नाम के एक व्यक्ति को इस कार्य के लिए रोम से भारत भेजा गया। भर्ती किये गए विद्यार्थियों में से एक माधव काशीनाथ दामले, ने करेली के सुझाव के बाद मुसोलिनी की पुस्तक “फ़ासीवाद का सिद्धांत” का मराठी में अनुवाद किया और उसे 1939 में एक श्रृंखलाबद्ध तरीके से लोहखंडी मोर्चा (आयरन फ्रण्ट) नामक पत्रिका में छापा गया। महाराष्ट्र में फैले फ़ासीवादी प्रभाव का एक और उदाहरण एम.आर. जयकर, जो हिन्दू महासभा के एक प्रतिष्ठित नेता थे, द्वारा गठित ‘स्वास्तिक लीग’ थी। 1940 में नात्सियों के असली चरित्र के सामने आने के साथ इस लीग ने खुद को नात्सीवाद से अलग कर लिया।

ओरिजीत सेन का कार्टून

1930 के अन्त तक, आर.एस.एस. की पैठ महाराष्ट्र के ब्राह्मण समाज में बन गयी थी। हेडगेवार ने मुंजे के विचारों से सहमति ज़ाहिर करते हुए, संघ की शाखाओं में फ़ासीवादी प्रशिक्षण की शुरुआत की। लगभग इसी समय विनायक दामोदर सावरकर, जिसके बड़े भाई राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ के संस्थापकों में से एक थे, ने जर्मनी के नात्सियों द्वारा यहूदियों के सफ़ाये को सही ठहराया और भारत में मुसलमानों की “समस्या” का भी यही समाधान सुझाया। जर्मनी में “यहूदी प्रश्न’ का अन्तिम समाधान सावरकर के लिए मॉडल था। संघियों के लिए राष्ट्र के सबसे बड़े दुश्मन थे मुसलमान! ब्रिटिश साम्राज्य उनकी निन्दा या क्रोध का कभी पात्र नहीं था। आर.एस.एस. ऐसी गतिविधियों से बचता था जो अंग्रेजी सरकार के खिलाफ़ हों। संघ द्वारा ही छपी हेडगेवार की जीवनी जिसका ज़िक्र पहले भी लेख में किया जा चुका है, में ‘डाक्टर साहब’ की स्वतंत्रता संग्राम में भूमिका का वर्णन करते हुए बताया गया है कि संघ स्थापना के बाद ‘डाक्टर साहब’ अपने भाषणों में हिन्दू संगठन के सम्बन्ध में ही बोला करते थे। सरकार पर प्रत्यक्ष टीका न के बराबर रहा करती थी। हेडगेवार ने मृत्यु से पहले गोलवलकर को अपना उत्तराधिकारी नियुक्त किया। गोलवलकर 1940 से 1973 तक संघ के सुप्रीमो रहे। गोलवलकर के ही नेतृत्व में संघ के वे सभी संगठन अस्तित्व में आये जिन्हें हम आज जानते हैं। गोलवलकर ने संघ की फ़ासीवादी विचारधारा को एक सुव्यवस्थित रूप दिया और इसकी पहुँच को महाराष्ट्र के ब्राह्मणों से बाहर निकाल अखिल भारतीय संगठन का रूप दिया। संघ ने इसी दौरान अपने स्कूलों का नेटवर्क देश भर में फैलाया। संघ की शाखाएँ भी गोलवलकर के नेतृत्व में पूरे देश में बड़े पैमाने पर फैलीं। यही कारण है कि संघ के लोग उन्हें गुरु जी कहकर सम्बोधित करते हैं।

इनके किये-धरे पर लिखना हो तो पूरी किताब लिखी जा सकती है। और कई अच्छी किताबें मौजूद भी हैं परन्तु हमारा यह मकसद नहीं था। हमारा यहाँ सिर्फ़ यह मकसद था कि यह दिखाया जाए कि संघ का विचारधारात्मक, राजनीतिक और सांगठनिक ढाँचा एक फ़ासीवादी संगठन का ढाँचा है। इसकी विचारधारा फ़ासीवाद है। अपने को राष्ट्रवादी कहने वाले और इटली व जर्मनी के फासीवादियों व नात्सियों से उधार ली निक्कर, कमीज़ और टोपी पहन कर इन मानवद्रोहियों ने देश और धर्म के नाम पर अब तक जो उन्माद फैलाया है वह फ़ासीवादी विचारधारा को भारतीय परिस्थितियों में लागू करने का नतीजा है। भारतीय संस्कृति, भारतीय अतीत के गौरव, और भाषा आदि की दुहाई देना तो बस एक दिखावा है। संघ परिवार तो अपनी विचारधारा, राजनीति, संगठन और यहाँ तक कि पोशाक से भी पश्चिमपरस्त है! और पश्चिम का अनुसरण करने में भी इसने वहाँ के जनवादी और प्रगतिशील आदर्शों का अनुसरण करने की बजाय, वहाँ की सबसे विकृत, मानवद्रोही और बर्बर विचारधारा, यानी कि फासीवाद-नात्सीवाद का अनुसरण किया है। हमारा मक़सद ‘संस्कृति’, ‘धर्म’ और ‘राष्ट्रवाद’ की दुहाई देने वाले इन फासीवादियों की असली जन्मकुण्डली को आपके सामने खोलकर रखना था, क्योंकि पढ़ी-लिखी आबादी और विशेषकर नौजवानों का एक हिस्सा भी देशभक्ति करने के महान उद्देश्य से इन देशद्रोहियों के चक्कर में फँस जाता है। इसलिए ज़रूरी है कि इनके पूरे इतिहास को जाना जाय और समझा जाय कि देशप्रेम, राष्ट्रप्रेम से इनका कभी लेना-देना था ही नहीं। यह देश में पूँजीपतियों की नंगी तानाशाही लागू करने के अलावा और कुछ नहीं करना चाहते।
मुक्तिकामी छात्रों-युवाओं का आह्वान, सितम्‍बर-दिसम्‍बर 2013

स्त्रोत : http://ahwanmag.com/archives/3394

Wednesday 1 October 2014

आपको राम राज्य चाहिए या नहीं?

कुछ लोग राम राज्य के नाम पर चिल्ला रहे हैं, लेकिन कभी किसी ने किसी को ये बताने की जहमत नहीं उठाई कि आखिर राम राज्य में ऐसा क्या था? जो राम राज्य आते ही देश की दशा और दिशा बिलकुल ही बदल जाएगी? ये बात सच है राम राज्य आते ही देश की दशा और दिशा दोनों ही बदल जाएँगी, लेकिन किस तरह ?
ये जानने के लिए हमको राम राज्य की विशेषताओं को जानना होगा, जो निम्न प्रकार है:
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1. बाल विवाह को बढ़ावा, जिससे देश की जनसँख्या तीव्र गति से बढ़ाने में मदद मिलेगी। 
2. पुरुषों को बहुविवाह के अधिकार होगा।  
3. स्त्रियों को सिर्फ घरों तक सीमित किया जाएगा।  
4. स्त्रियों, शूद्रों, अनार्यों आदि को पढाई-लिखाई से वंचित किया जाएगा। 
5. जातिवाद और वर्ण व्यवस्था को बढ़ावा देना और कायम रखना। 
6. शूद्रों को सिर्फ नीच समझे जाने वाले और सेवा के कार्य करने के अधिकार होंगे। 
7. यातायात की सुविधाओं के लिए ट्रेन, बस, हवाई जहाज के स्थान पर रथ और घोड़ों का प्रयोग, जो सिर्फ एक वर्ग विशेष के लिए उपलब्ध होती थी।  
8. सती प्रथा को बढ़ावा। 
9. अन्धविश्वास और पाखंड को बढ़ावा। 
10. शिक्षा देने का अधिकार सिर्फ एक ब्राह्मण जाति को ही होगा। 
ये कुछ प्रमुख विशेषताए हैं, राम राज्य की अब आप सोचिये आपको राम राज्य चाहिए या नहीं ?
-संकलित। 

Thursday 28 August 2014

इनसे जन्मे- भारत, यादव, मलेच्छ और यवन

इनसे जन्मे- भारत, यादव, मलेच्छ और यवन

* ब्रह्मा के प्रमुख पुत्र :- 1. मरीचि, 2. अत्रि, 3. अंगिरस, 4. पुलस्त्य, 5. पुलह, 6. कृतु, 7. भृगु, 8. वशिष्ठ, 9. दक्ष, 10. कर्दम, 11. नारद, 12. सनक, 13. सनन्दन, 14. सनातन, 15. सनतकुमार, 16. स्वायम्भुव मनु और शतरुपा, 17. चित्रगुप्त, 18. रुचि, 19. प्रचेता 20. अंगिरा आदि।

* ब्रह्मा की प्रमुख पुत्रियां :- 1. सावित्री, 2. गायत्री, 3. श्रद्धा, 4. मेधा और 5. सरस्वती हैं।

* 10 प्रजापति : ब्रह्मा के 59 पुत्रों में से 10 पुत्र प्रजापति बने- 1. मरीचि, 2. अत्रि, 3. अंगिरा, 4. पुलस्त्य, 5. पुलह, 6. कृतु, 7. भृगु, 8. वशिष्ठ, 9. दक्ष और 10. कर्दम।

1. मरीचि : मरीचि ने ब्रह्मा पुत्र कर्दम की पुत्री कला से विवाह किया था। 


2. अत्रि : अत्रि ने ब्रह्मा पुत्र कर्दम की पुत्री अनुसूया से विवाह किया था। अनुसूया की माता का नाम देवहूति था। अत्रि को अनुसूया से एक पुत्र जन्मा जिसका नाम दत्तात्रेय था। अत्रि-दंपति की तपस्या और त्रिदेवों की प्रसन्नता के फलस्वरूप विष्णु के अंश से महायोगी दत्तात्रेय, ब्रह्मा के अंश से चन्द्रमा तथा शंकर के अंश से महामुनि दुर्वासा, महर्षि अत्रि एवं देवी अनुसूया के पुत्र रूप में आविर्भूत हुए। इनके ब्रह्मावादिनी नाम की कन्या भी थी।

अत्रि पुत्र चन्द्रमा ने बृहस्पति की पत्नी तारा से विवाह किया जिससे उसे बुध नाम का पुत्र उत्पन्न हुआ, जो बाद में क्षत्रियों के चंद्रवंश का प्रवर्तक हुआ। इस वंश के राजा खुद को चंद्रवंशी कहते थे। चूंकि चंद्र अत्रि ऋषि की संतान थे इसलिए आत्रेय भी चंद्रवंशी ही हुए। ब्राह्मणों में एक उपनाम होता है आत्रेय अर्थात अत्रि से संबंधित या अत्रि की संतान।

चंद्रवंश के प्रथम राजा का नाम भी सोम माना जाता है जिसका प्रयाग पर शासन था। अत्रि से चंद्रमा, चंद्रमा से बुध, बुध से पुरुरवा, पुरुरवा से आयु, आयु से नहुष, नहुष से यति, ययाति, संयाति, आयति, वियाति और कृति नामक छः महाबल-विक्रमशाली पुत्र हुए।

नहुष के बड़े पुत्र यति थे, जो संन्यासी हो गए इसलिए उनके दुसरे पुत्र ययाति राजा हुए। ययाति के पुत्रों से ही समस्त वंश चले। ययाति के 5 पुत्र थे। देवयानी से यदु और तुर्वसु तथा शर्मिष्ठा से द्रुह्मु, अनु एवं पुरु हुए। यदु से यादव, तुर्वसु से यवन, द्रहुयु से भोज, अनु से मलेच्छ और पुरु से पौरव वंश की स्थापना हुई। 

* ययाति के 5 पुत्र थे- 1. पुरु, 2. यदु, 3. तुर्वस, 4. अनु और 5. द्रुह्मु।

ययाति ने दक्षिण-पूर्व दिशा में तुर्वसु को (पंजाब से उत्तरप्रदेश तक), पश्चिम में द्रुह्मु को, दक्षिण में यदु को (आज का सिंध प्रांत) और उत्तर में अनु को माण्डलिक पद पर नियुक्त किया तथा पुरु को संपूर्ण भूमंडल के राज्य पर अभिषिक्त कर स्वयं वन को चले गए। हालांकि पुरु के राज्य में संपूर्ण कश्मीर और जम्मू सहित हिमालय और तिब्बत का क्षेत्र था। यरुशलम से काशी तक इन 5 कुल का ही शासन था।

1. पुरु का वंश : पुरु वंश में कई प्रतापी राजा हुए उनमें से एक थे भरत और सुदास। इसी वंश में शांतनु हुए जिनके पुत्र थे भीष्म। पुरु के वंश में ही अर्जुन पुत्र अभिमन्यु हुए। इसी वंश में आगे चलकर परीक्षित हुए जिनके पुत्र थे जन्मजेय।

2. यदु का वंश : यदु के कुल में भगवान कृष्ण हुए। यदुकुल की संपूर्ण जानकारी के लिए आगे क्लिक करें...चंद्रवंश : यदुवंश को जानिए... 

3. तुर्वसु का वंश : तुर्वसु के वंश में भोज (यवन) हुए। ययाति के पुत्र तुर्वसु का वह्नि, वह्नि का भर्ग, भर्ग का भानुमान, भानुमान का त्रिभानु, त्रिभानु का उदारबुद्धि करंधम और करंधम का पुत्र हुआ मरूत। मरूत संतानहीन था इसलिए उसने पुरु वंशी दुष्यंत को अपना पुत्र बनाकर रखा था। परंतु दुष्यंत राज्य की कामना से अपने ही वंश में लौट गए।

महाभारत के अनुसार ययाति पुत्र तुर्वसु के वंशज यवन थे। पहले ये क्षत्रिय थे, पर ब्राह्मणों से द्वेष रखने के कारण इनकी गिनती शूद्रों में होने लगी। महाभारत युद्ध में ये कौरवों के साथ थे। इससे पूर्व दिग्विजय के समय नकुल और सहदेव ने इन्हें पराजित किया था।

4. अनु का वंश : अनु को ऋ‍ग्वेद में कहीं-कहीं आनव भी कहा गया है। कुछ इतिहासकारों के अनुसार यह कबीला परुष्णि नदी (रावी नदी) क्षेत्र में बसा हुआ था। आगे चलकर सौवीर, कैकेय और मद्र कबीले इन्हीं आनवों से उत्पन्न हुए थे।

5. द्रुह्मु का वंश : द्रुह्मु के वंश में राजा गांधार हुए। ये आर्यावर्त के मध्य में रहते थे बाद में द्रहुओं को इक्ष्वाकु कुल के राजा मंधातरी ने मध्य एशिया की ओर खदेड़ दिया गया। पुराणों में द्रुह्यु राजा प्रचेतस के बाद द्रुह्युओं का कोई उल्लेख नहीं मिलता। प्रचेतस के बारे में लिखा है कि उनके 100 बेटे अफगानिस्तान से उत्तर जाकर बस गए और 'म्लेच्छ' कहलाए।

ययाति के पुत्र द्रुह्यु से बभ्रु का जन्म हुआ। बभ्रु का सेतु, सेतु का आरब्ध, आरब्ध का गांधार, गांधार का धर्म, धर्म का धृत, धृत का दुर्मना और दुर्मना का पुत्र प्रचेता हुआ। प्रचेता के सौ पुत्र हुए, ये उत्तर दिशा में म्लेच्छों (अरबों) के राजा हुए।

* यदु और तुर्वस को दास कहा जाता था। यदु और तुर्वस के विषय में ऐसा माना जाता था कि इंद्र उन्हें बाद में लाए थे। सरस्वती दृषद्वती एवं आपया नदी के किनारे भरत कबीले के लोग बसते थे। सबसे महत्वपूर्ण कबीला भरत का था। इसके शासक वर्ग का नाम त्रित्सु था। संभवतः सृजन और क्रीवी कबीले भी उनसे संबद्ध थे।

तुर्वस और द्रुह्म से ही यवन और मलेच्छों का ‍वंश चला। इस तरह यह इतिहास सिद्ध है कि ब्रह्मा के एक पु‍त्र अत्रि के वंशजों ने ही यहुदी, यवनी और पारसी धर्म की स्थापना की थी। इन्हीं में से ईसाई और इस्लाम धर्म का जन्म हुआ। याकूब से जन्में यहुदियों के जो 12 कबीले थे उनका संबंध द्रुह्मु से ही था। हालांकि यह शोध का विषय है।
संदर्भ : वेद, पुराण, महाभारत

स्त्रोत : हिंदी ववब दुनिया 

http://hindi.webdunia.com/sanatan-dharma-history/%E0%A4%87%E0%A4%A8%E0%A4%B8%E0%A5%87-%E0%A4%9C%E0%A4%A8%E0%A5%8D%E0%A4%AE%E0%A5%87-%E0%A4%AD%E0%A4%BE%E0%A4%B0%E0%A4%A4-%E0%A4%AF%E0%A4%BE%E0%A4%A6%E0%A4%B5-%E0%A4%AE%E0%A4%B2%E0%A5%87%E0%A4%9A%E0%A5%8D%E0%A4%9B-%E0%A4%94%E0%A4%B0-%E0%A4%AF%E0%A4%B5%E0%A4%A8-113120900016_1.htm

Thursday 7 November 2013

रामायण की ऐतिहासिकता-क्या रामायण ऐतिहासिक ग्रंथ है?

रामायण की ऐतिहासिकता-क्या रामायण ऐतिहासिक ग्रंथ है?
(यहॉं प्रस्तुत सामग्री केवल उन पाठकों के लिये है, जो तर्क और सत्य में विश्‍वास करते हैं)
जब कभी हमारे पूर्वजों के इतिहास बोध की बात चलती है तो प्राय: वाल्मीकि रामायण को इतिहास ग्रंथ के तौर पर पेश किया जाता है और यह स्थापित करने की कल्पना की कोशिश की जाती है कि प्राचीन भारतीयों का इतिहास बोध बहुत स्पष्ट था। लेकिन जब हम रामायण को उठाते हैं तो वहां कुछ और ही दिखाई पड़ता है। रामायण के लेखक (वाल्मीकि) ने रामायण की प्रद्भति का कई स्थलों पर उल्लेख किया है। उसने इसे कहीं भी ‘इतिहास’ नहीं कहा। इस प्रसंग में रामायण के शुरू और अन्त के कुछ स्थल यहां प्रस्तुत हैं :-
बालकांड-02/35 : ब्रह्मा ने वाल्मीकि से कहा, तुम्हारे काव्य में कुछ भी झूठा नहीं होगा।

बालकांड-02/14 : वाल्मीकि ने कहा, मैं सम्पूर्ण रामायण काव्य की रचना करूंगा।उत्तरकांड-111/16 : यह वही आदिकाव्य है, जिसे पहले वाल्मीकि ने रचा।
उत्तरकांड-111/03 : वे प्रसन्न होकर स्वर्ग में नित्य रामायण काव्य को सुनते हैं।
उत्तरखंड, रामायण माहात्म्य-01/19 : रामायण महाकाव्य सब वेदों के अनुकूल है।
उत्तरखंड, रामायण माहात्म्य-22 : इस ॠषि प्रणीत काव्य को सुनकर व्यक्ति शुद्ध हो जाता है।
उत्तरखंड, रामायण माहात्म्य-27 : रामायण नामक परम काव्य है।
उत्तरखंड, रामायण माहात्म्य-5/54 : इस रामायण महाकाव्य को सुनकर।
उत्तरखंड, रामायण माहात्म्य-5/61 : रामायण आदि महाकाव्य है।

अंत: इन प्रमाणों और साक्ष्यों से स्पष्ट कि रामायण को न उसके रचयिता ने इतिहास माना और रामायण भक्तों ने। सब ने एक स्वर में इसे काव्य कहा है। अगले अंक में पढें कि ‘क्या रामायण कल्पना है?’

स्रोत : क्या बालू की भीत पर खड़ा है-हिन्दू धर्म?

Tuesday 17 September 2013

हिन्दू धर्म-स्त्री होने का मतलब?-पाठक प्रतिक्रिया!

हिन्दू धर्म-स्त्री होने का मतलब?

प्रेसपालिका के 16 से 31 अगस्त, 13 के अंक में प्रकाशित उक्त शीर्षक के आलेख पर पाठकों की टिप्पणियॉं
औरत के सम्मान की परवाह नहीं करता ऐसे हिन्दू धर्म की जरूरत ही क्या है?

प्रेसपालिका में ‘हिन्दू धर्म-स्त्री होने का मतलब?’ शीर्षक से मुखपृष्ठ पर जो आलेख प्रकाशित किया है, वह हर एक स्त्री की आँखें खोलने वाला है। इसे पढकर मुझे बहुत गहरा सदमा लगा है।

बचपन से सुनते आये हैं कि भारत में कभी स्त्री की पूजा की जाती थी और बेटी को लक्ष्मी अवतार बताया जाता रहा है। लेकिन आज समाज में हालात ये हैं कि बेटी के पैदा होने पर खुशी के बजाय गमी देखी जाती है और बेटे के जन्म पर खुशी मनायी जाती है। आपके लेख से ज्ञात होता है कि स्त्री जाति के अपमान के पीछे हिन्दू समाज की गंदी मानसिकता काम कर रही है, जिसे उसी हिन्दू धर्म ने जन्म दिया जाता है, जिसे संसार का सबसे बड़ा और महान धर्म बताया जाता है।

जबकि कड़वी सच्चाई यह है कि बेटी ही मॉं-बाप की चिंता करती है, उनका नाम रोशन करती है और उनकी खुशी का खयाल रखती है। आज हमारे देश में लड़कियों की जो कमी है, उसका मूल कारण है, हमारे हिन्दू धर्म की स्थापना करने वाले पंडित, पुरोहित और राजनेता। हिन्दू धर्मग्रंथों के रचियता कहते हैं कि-बेटी मॉं-बाप का धन चूसने वाली होती है। पुरुषों को खराब करने वाली होती है। बेटी मूर्ख और अशुभ होती हैं। क्रोध, द्वेष कुटिलता और बुरे कार्यों में रुचि उनका स्वभाव होता है। वे एक से नहीं अनेक मर्दों से प्यार करती हैं।

आठवीं सदी के महान हिन्दू दार्शनिक शंकराचार्य ने तो स्त्रियों के बारे में बिना सोचे समझे बहुत बड़ी अपमानजनक बात कह दी है-‘स्त्री नर्क का द्वार है’! लेकिन  ऐसा कहते समय वे यह भूल गये कि यदि स्त्री नर्क द्वार है तो फिर उनको भी तो नर्क का द्वारा रूपी स्त्री ने ही जन्म दिया है। वही स्त्री उस शंकराचार्य को इस दुनिया में लायी है। अगर स्त्री नहीं होती तो ये शंकराचार्य इस दुनिया में पैदा ही नहीं होते। जहॉं तक मेरा मानना है, हर एक सफल पुरुष के पीछे एक औरत होती है। चाहे वह मॉं, बहिन या पत्नी कोई भी हो।

हमारे देश में औरतों ने इतिहास रचा है। चाहे इन्दिरा गॉंधी का राजनीति के क्षेत्र में योगदान हो, चाहे विज्ञान के क्षेत्र में कल्पना चावला का नाम हो। स्त्री हंसते हंसते सबकुछ सह लेती है। जब बर्दाश्त करने की हद पार हो जाती है तो वही स्त्री दुर्गा का रूप ले लेती है। फिर सामने चाहे कोई भी क्यों न हो, पीछे नहीं हटती है। औरत को घटिया बताने वाले हिन्दू धर्म के ठेकेदारों को समझना चाहिये कि यदि स्त्री नहीं होती तो मर्द का वजूद ही क्या था?

सच तो ये है कि स्त्री और पुरुष दोनों एक-दूसरे के पूरक हैं। दोनों एक-दूसरे के बिना अधूरे हैं। जहॉं तक बात है हिन्दू- धर्म की या धर्मग्रंथों की तो मैं तो यही कहूँगी कि जो धर्म औरतों की इज्जत करना नहीं जानता, जिस धर्म को औरत के सम्मान की परवाह नहीं, ऐसे हिन्दू धर्म की हमारे देश में कोई आवश्यकता नहीं है!

मैं आशा करती हूँ कि प्रेसपालिका में आगे भी इसी प्रकार की जानकारियॉं छपती रहेंगी, जिससे धर्म के नाम पर ऊलजुलूल बातों को लिखने वाले धर्म के ठेकेदारों की सच्चाई आज की पीढी को पता चल सके। वहीं स्त्रियों को जागरूक होने का अवसर मिल सके।-सुमन शर्मा, जयपुर।

हिन्दू धर्मग्रंथों को छापने और बेचने वाले लोग अपनी माता-बहनों की इज्जत को बेच रहे हैं!

प्रेसपालिका में ‘हिन्दू धर्म-स्त्री होने का मतलब?’ शीर्षक से जो महत्वूपर्ण जानकारी प्रकाशित की गयी है। उसके लिये सम्पादक को कोटि-कोटि धन्यवाद और आभार। आपने इस आलेख के मार्फत इस बात को बखूबी प्रमाणित कर दिया है कि आज हमारे समाज में बेटियों, बहिनों और पत्नियों के प्रति जो घृणात्मक सोच है, उसके लिये हिन्दू धर्म के धर्मग्रंथ और इन ग्रंथों के रचियता, प्रकाशक और आज भी इनका महिमामंडन करने वाले पुरोहित, पंडे और पुजारी ही जिम्मेदार हैं। इन्हीं लोगों की बीमार सोच के कारण ही आज कन्या भ्रूणहत्या जैसा पाप फल-फूल रहा है।

स्त्री जाति के बारे में इस प्रकार की अवैज्ञानिक और अमानवीय सोच जिन ग्रंथों में लिखी गयी है, ऐसे ग्रंथों को धर्मग्रंथ कहना धर्म की पवित्र भावना के खिलाफ है। जिस हिन्दू धर्म में ऐसे धर्मग्रंथों और ऐसे धर्मगंथों के लेखकों का सम्मान होता हो, उस हिन्दू धर्म का पतन होना तय है। ऐसे धर्म को नष्ट हो ही जाना चाहिये। जो धर्म मानवता की आधी आबादी अर्थात् 50 फीसदी स्त्री जाति को ही नर्क का द्वार मानता हो, वह धर्म कैसे मानवीय हो सकता है? ऐसा धर्म सिवाय इस धर्म के संचालकों के और किसका भला कर सकता है? जो भी लोग हिन्दू धर्म के इन धर्मग्रंथों को आज भी प्रकाशित करते हैं, छापते हैं और इन्हें बेचते हैं, वे सभी अपनी माता-बहनों की इज्जत का सौदा कर रहे हैं। वे अपनी माता-बहनों की इज्जत को बेच रहे हैं!-ममता माहेश्‍वरी, नयी दिल्ली।

Wednesday 28 August 2013

हिन्दू धर्म-स्त्री होने का मतलब?

अनेक संगठन और राजनैतिक दल हिन्दू धर्म रक्षार्थ प्रयासरत हैं
अत: जानना जरूरी है कि हिन्दू धर्म से कौन-कैसे ताकतवर होगा?

हिन्दू धर्म-स्त्री होने का मतलब?

  • स्त्री के मन को शिक्षित नहीं किया जा सकता। उसकी बुद्धि तुच्छ होती है।-ॠग्वेद-8/33/17
  • स्त्रियों के साथ मैत्री नहीं हो सकती। इनके दिल लकड़बघ्घों के दिलों से क्रूर होते हैं।-ॠग्वेद-10/98/15
  • पुत्री कष्टप्रदा, दुखदायिनी होती है।-ऐतरेय ब्राह्मण ग्रंथ।
  • बेटी को दुहिता इसलिये कहा जाता है कि वह ‘दुर्हिता’ (बुरा करने वाली) और ‘दूरेहिता’ (उससे दूर रहने पर ही भलाई) है। वह ‘दोग्धा’ (माता-पिता के धन को चूसने वाली) है।-आचार्य यास्क कृत ग्रंथ निरुक्त-अ.3, ख.4
  • -ॠग्वेद में ‘विधवेव देवरम्’ (10-40-2) आता है। इसका अर्थ करते हुए स्वामी दयानंद सरस्वती ने लिखा है- ‘‘जैसे विधवा स्त्री देवर के साथ संतानोत्पत्ति करती है, वैसे ही तुम भी करो।’’ फिर उन्होंने निरुक्तकार यास्क के अनुसार ‘देवर’ शब्द का अर्थ बताते हुए लिखा है-
  • ‘‘विधवा को जो दूसरा पति होता है, उसको ‘देवर’ कहते हैं।’’ (देखें-ॠग्वेदादिभाष्य भूमिका, नियोग प्रकरण)

मनुस्मृति में नारी विषयक दृष्टिकोण

  1. -पुरुषों को खराब करना स्त्रियों का स्वभाव ही है, अत: बुद्धिमानों को इनसे बचना चाहिये।
  2. -पुरुष विद्वान हो, चाहे अविद्वान, स्त्रियां उसे बुरे रास्ते पर डाल देती हैं।
  3. -ललाई लिए भूरे रंग वाली, 6 उंगलियों वाली, ज्यादा बालों वाली, बिना बालों वाली, ज्यादा बोलने वाली स्त्री के साथ विवाह नहीं करें। (लेकिन मनुस्मृति में ये नहीं बताया गया कि इन दुर्गुणों वाली कन्या किसी परिवार में जन्में तो उसका उसके माता-पिता क्या करे?)
  4. -जिनका कोई भाई न हो, उसके साथ विवाह नहीं करें।
  5. -स्त्रियों का बचाकर रखना चाहिये। वे सुंदर या कुरूप का भी ध्यान नहीं करती। वे किसी भी पुरुष की हो जाती हैं।
  6. -स्त्रियों में क्रोध, कुटिलता, द्वेष और बुरे कामों में रुचि स्वभाव से ही होती है।
  7. -स्त्रियों के संस्कार वेदमंत्रों से नहीं करने चाहिये। वे मूर्ख व अशुभ होती हैं।
  8. -विधवा स्त्री का दोबारा विवाह नहीं करना चाहिये। यदि किया जाये तो धर्म (हिन्दू धर्म) का नाश होता है।
  9. -यदि सगाई के बाद ही भावी पति मर जाये तो कन्या को उसके (भावी पति के) छोटे भाई के साथ ब्याह दें।
  1. चाणक्यनीतिदर्पण-(14/12)-अग्नि, पानी, स्त्री, मूर्ख व्यक्ति, सर्प और राजा से सदा सावधान रहना चाहिये। क्योंकि ये सेवा करते-करते ही उलटे फिर जाते हैं। अर्थात् प्रतिकूल होकर प्राण कर लेते हैं।
  2. चाणक्यनीतिदर्पण-(16/2)-स्त्रियां एक के साथ बात करती हुई दूसरे की ओर देख रही होती हैं और दिल में किसी तीसरे का चिंतन हो रहा होता है। इन्हें किसी एक से प्यार नहीं होता।
  3. चाणक्यनीतिदर्पण-(10/4)-स्त्रियां कौनसा दुष्कर्म नहीं कर सकती?
  4. चाणक्यनीतिदर्पण-(2/1)-झूठ, दुस्साहस, कपट, मूर्खता, लालच, अपवित्रता और निर्दयता स्त्रियों के स्वाभाविक दोष हैं।
-श्रृंगारशतक-का 76 वां पद्य-स्त्री संशयों का भंवर, उद्दंडता का घर, उचितानुचित काम की शौकीन, बुराईयों की जड़, कपटों का भंडार, अंधविश्‍वासों की पात्र होती है। महापुरुषों को सब बुराइयों से भरपूर स्त्री से दूर रहना चाहिये। न जाने धर्म का संहार करने के लिये स्त्री की सृष्टि किस ने कर दी?

-8वीं सदी के महान हिन्दू दार्शनिक शंकराचार्य का कहना है-‘स्त्री नरक का द्वार है।’

-13वीं सदी के संत कबीर ने लिखा है-

नारी की झांई परत, अंधा होत भुजंग।
कबिरा तिन की क्या गति, नित नारी के संग।

-तुलसीदास ने रामचरितमानस में लिखा है-

ढोल गंवार शूद्र पसु नारी,
ये सब ताड़न के अधिकारी।

-राम को ‘मर्यादा पुरुषोत्तम’ सिद्ध करने वाले तुलसीदास ने भी राम द्वारा दहेज स्वीकारने और दहेज में दास-दासियों को स्वीकार करने का उल्लेख किया है-

कहि न जाय कुछ दायज भूरी,
रहा कनक मणि मंडप पूरी।

गज रथ तुरग दास अरु दासी,
धेनु अलंकृत काम दुहासी।

स्रोत : क्या बालू की भीत पर खड़ा है हिन्दू धर्म?

Sunday 17 June 2012

हिन्दू मतलब?

  1. अपने आप के लिए हिन्दू शब्द का उपयोग करवाने का सच्चा हकदार यदि कोई है तो केवल "भारत भूमि के मूल निवासी" हैं!
  2. जबकि "हिन्दू" शब्द को कुछ विदेशी मूल की चालाक, आक्रमणकारी और व्यापारी आर्य जातियों ने धर्म से जोड़ दिया, जबकि सच में "हिन्दू" शब्द एक भौगोलिक अर्थ का द्योतक शब्द है!
  3. जिसके अनुसार भारत में व्यापारी के वेष में आर्यों के आगमन से पूर्व सिन्धु नदी के पार या किनारे (पूर्व में) भारत की भूमि पर उस समय निवास करने वाली सभी जातियों और नस्लों के भारतीय लोगों को ही "हिन्दू" कहकर संबोधित किया गया!
  4. जिसका उस समय किसी धर्म से कोई दूर का भी वास्ता नहीं था! क्योंकि आज यदि हम पड़ताल करना चाहें तो पायेंगे कि किसी भी धार्मिक ग्रन्थ में धर्म के रूप में "हिन्दू धर्म" शब्द का उल्लेख नहीं मिलता है!
  5. जिससे स्वत: प्रमाणित होता है कि व्यापारी आर्यों के आगमन से पूर्व भारत भूमि पर निवास करने वाली सभी जातियों और नस्लों लोग ही उस समय "वास्तविक हिन्दू" कहलाये !
  6. यहाँ तक कि सर्व प्रथम चालाक, आक्रमणकारी और व्यापारी आर्यों ने ही सिन्धु नदी के किनारे रहने/बसने  वाले अनार्य मूल भारतियों के लिए "हिन्दू शब्द" का प्रयोग किया था!
  7. लेकिन आज के सन्दर्भ में "हिन्दू" शब्द एक धर्म सूचक शब्द बना दिया गया है! जिसका मतलब आर्य-ब्राह्मणों द्वारा अपने स्वार्थ किए प्रतिपादित तथाकथित "सनातन धर्म" को मानने वाले सभी लोग "हिन्दू" हैं! 
  8. इसलिए आम व्यक्ति की समझ में "हिन्दू" शब्द का आज के सन्दर्भ में यही अर्थ सही और वास्तविक है! जिसे "हिन्दू धर्म" बना दिया है!
  9. "हिन्दू धर्म"-एक ऐसा धर्म जिसमें "जन्म और कुल के आधार पर मानव-मानव में आजीवन विभेद किया जाना धार्मिक होने का सबसे बड़ा प्रमाण है!
  10. जिसको प्रतिपादित करने वाले चालाक, आक्रमणकारी और व्यापारी आर्य ब्राह्मणों के वंशजों को अपने इस अमानवीय कुकर्म के लिए आज भी कोई अफ़सोस या शर्म या अपराधबोध नहीं है!
  11. बल्कि वे अपने पूर्वजों के कुकर्मों और असंख्य घृणित अपराधों को येनकेन सही और धार्मिक सिद्ध करने के लिए, आज भी लगातार कुतर्क दिए जा रहे हैं!
  12. यही नहीं वे हर हाल में आज भी इस अमानवीय "हिन्दू धर्म" को मजबूत करना चाहते हैं! जिसके लिए लगातार अनेक प्रकार के कथित धार्मिक आयोजन चलते रहते हैं। जिनमें होने वाला सारा खर्चा अनार्यों द्वारा उठाया जाता है। 
  13. सबसे दु:खद तथ्य तो ये है कि चालाक, आक्रमणकारी और व्यापारी आर्यों के शिरोमणी "ब्राह्मणों" ने उनकी रक्षा करने वाले यौद्धा "क्षत्रियों" को भी परशुराम के हाथों इक्कीस बार इस भरता भूमि से समूल नष्ट करवा दिया।
  14. केवल यही नहीं यौद्धा "क्षत्रियों" के हत्यारे परशुराम को "भगवान परशुराम" कहकर उसके जन्म दिन को एक सप्ताह तक धूम-धाम से मनाया जाता है।
  15. संसार से सबसे बड़े हत्यारे लेकिन ब्राह्मणों के कथित भगवान परशुराम के जन्म दिन को सार्वजनिक अवकाश घोषित करने की ब्राह्मणों द्वारा सरकार से लगातार मांग की जा रही है!
  16. आर्य वैश्यों को भी "ब्राह्मण" आर्यों में सबसे निचले पायदान पर ब्रह्मा की जांघों से उत्पन्न बताकर हजारों सालों से लगातार अपमानित किया है!
  17. इसके उपरान्त भी चालाक, आक्रमणकारी और व्यापारी आर्यों के शिरोमणी "ब्राह्मणों" ने चालाकी से आज के क्षत्रियों और वैश्यों को अपने साथ, अपने गुट में मिला रखा है तथा भारत की समस्त मूल/अन्य अनार्य जातियों-प्रजातियों को ब्रह्मा के पैरों से उत्पन्न बताकर "शूद्र" कहकर हजारों सालों से लगातार अपमानित किया है!
  18. केवल इतना ही नहीं, बल्कि चालाक, आक्रमणकारी और व्यापारी आर्यों के शिरोमणी "ब्राह्मणों" ने अपनी खुद की बहन-बेटियों सहित समस्त स्त्री प्रजाति को शूद्रों से भी निचले पायदान पर स्थापित करके उसे "नरक का द्वार, पुरुष की दासी, मूर्ख, कुलता, व्यभिचारिणी" जैसे अपमानजनक और घृणित अलंकारों अलंकृत किया हुआ है!
  19. सबसे दु:खद तो ये है कि ऐसे हिन्दू धर्म को फिर से आधुनिक लोकतान्त्रिक भारत में ताकतवर बनाने के लिए चालाक, आक्रमणकारी और व्यापारी आर्यों के शिरोमणी "ब्राह्मणों" के निर्देशानुसार अनेक कथित हिन्दू संगठन और हिन्दू हितैषी राजनैतिक दल सुनियोजित रूप से कार्यरत हैं!
  20. इससे भी भयंकर दु:खद और शर्मनाक तो ये है कि चालाक, आक्रमणकारी और व्यापारी आर्यों के शिरोमणी "ब्राह्मणों" की इस कूटनीति को सफल बनाने में सबसे बड़ा योगदान स्त्रियों, शूद्रों और वैश्यों के कथित 99 फीसदी हिन्दू अनुयायियों का ही है! जो खुद के पैरों पर कुलहाड़ी मार रहे हैं! क्योंकि एक फीसदी "ब्राह्मणों" ने निन्यानवें फीसदी कथित हिन्दुओं को मानसिक रूप से अपना गुलाम बना रखा है!